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अनिश्चितता, असंगतता आदि दूषणों का उद्भावन कर इनकी बुरी तरह छीछालेदर की है। आचार्य शंकर की दृष्टि में तो उक्त सिद्धान्तों के विवेचन में 'पद्संख्यातोऽपि भूयसी दोषाणां संख्या' जितने पद प्रयुक्त हुए हैं उनसे भी अधिक दोष इन में हैं। शांकरभाष्य में विवेचित आहेत मत के निराकरण को पढ़ने से तो ऐसा प्रतीत होता है कि आचार्य शंकर के दृष्टि में जैनाचार्य महामूर्ख थे। वे दर्शन की बारह खड़ी भी नहीं जानते थे; किन्तु आचार्य शंकर तथा अन्य दार्शनिक विद्वानों द्वारा उक्त सिद्धान्तों पर किये गये दोषारोपण बिलकुल ही असंगत, पक्षपात तथा दुरभिनिवेश-पूर्ण प्रतीत होते हैं; क्योंकि इन सिद्धान्तों पर ये दोषारोपण तभी संगत और उचित हो सकते हैं जब जैनदर्शनकार वस्तु में सत्-असत्, एक-अनेक, नित्यअनित्य आदि परस्पर-विरोधी धर्मों को सर्वथा या किसी एक ही दृष्टि से स्वीकार करते। इसी प्रकार वस्तु को सर्वथा या एकान्ततः अथवा एक ही दृष्टि से अवक्तव्य मानते; किन्तु वे तो अपेक्षा भेद या दृष्टि भेद से ही एक धर्मी (वस्तु) में सत्-असत्, आस्ति-नास्ति आदि परस्पर विरोधी धर्मों को मानते हैं और अपेक्षा भेद से ही वस्तु को अवक्तव्य कहते हैं। इसी अपेक्षा या दृष्टिकोण को सूचित करने के लिए वस्तु के प्रत्येक धर्म वाचक भंग (वचन) के साथ 'स्यात्' (कथंचित् किसी अपेक्षा से) पद का प्रयोग करते हैं। जिसका मतलब होता है कि वस्तु न तो सर्वथा सत्-स्वरूप ही है और न असत् स्वरूप ही और न अवक्तव्य रूप ही; किन्तु किसी एक दृष्टि या अपेक्षा से वस्तु सत् स्वरूप है तो किसी दूसरे दृष्टि या अपेक्षा से वही वस्तु असत् रूप भी है। इसी प्रकार किसी एक दृष्टि या दृष्टिकोण से वस्तु अवक्तव्य भी है। इस प्रकार एक ही वस्तु में सत्त्व-असत्त्व, अस्तित्व-नास्तित्व आदि परस्पर विरोधी धर्मों को भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं से मानने में कोई विरोध नहीं आता। एक ही व्यक्ति अपने पिता की अपेक्षा पुत्र है और भाई आदि भी अपेक्षा पुत्र नहीं है। इसप्रकार एक ही व्यक्ति में पुत्रपने का सद्भाव और असद्भाव दोनों धर्म पाये जाते हैं। वस्तु का स्वरूप स्वचतुष्टय की अपेक्षा 'अस्तिरूप' ही है और परचतुष्टय की अपेक्षा 'नास्तिरूप' ही है तथा वस्तु के 'अस्ति-नास्ति' या 'सत्-असत्' धर्मों का एक साथ कथन करने की वचनों की असमर्थता वश 'अवक्तव्य' या 'अनिर्वचनीय' रूप भी कहा गया है। ____ जैनदर्शन के अनुसार वस्तु में प्रत्येक धर्म का विरोधी धर्म भी दृष्टि-भेद से सम्भव है। जैनदर्शन के इस तथ्य को उदाहरणों द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है। जैसे-1. स्यादस्ति घटः', 'घड़ा कथंचित् है' अर्थात् स्वचतुष्टय की अपेक्षा से 'घड़ा है।
2. 'स्यान्नास्ति घट:', 'घड़ा कथंचित् नहीं है' अर्थात् परचतुष्टय की अपेक्षा
178 :: जैनदर्शन में नयवाद
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