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________________ नैयायिक, वैशेषिक तथा बौद्धों ने सम्पूर्ण सत्य की मीमांसा केवल एक ही दृष्टिकोण को लेकर की है और इन सब ने यही माना है कि वस्तु-स्वरूप ऐसा ही है कोई दूसरा नहीं है; किन्तु वास्तविकता इन की मान्यताओं से बिल्कुल भिन्न ही है। अनुभव और विचार करने पर प्रत्येक वस्तु (तत्त्व) विपरीत गुणों का समूह मालूम होती है जबकि वास्तव में वे गुण एक दूसरे के विपरीत न होकर केवल विभिन्न अपेक्षाओं या दृष्टिकोणों के परिचायक हैं और ये ही सब विभिन्न दृष्टिकोण या अपेक्षाएँ सम्मिलित रूप से उस वस्तु (तत्त्व) के सम्पूर्ण सत्य को प्रकट करती हैं । मतलब यह है कि वास्तविक सत्य या सम्पूर्ण सत्य का परिज्ञान करने के लिए उसके किसी एक स्वरूप को लेकर उसकी 'सप्तभंग न्याय' से मीमांसा करना आवश्यक है । वस्तु स्वरूप को समझने के लिए हमें इसी 'सप्तभंग वाद' के सिद्धान्त को अपनाना होगा। जैनाचार्यों ने इस 'सप्तभंगी वाद' की सृष्टि या सहज कल्पना ही भिन्नभिन्न अपेक्षाओं, दृष्टिकोणों या मनोवृत्तियों से एक ही तत्त्व के नाना दर्शन कराने के लिए की है। जिन दो दर्शनों के विषय ठीक एक दूसरे के बिलकुल विरोधी पड़ते हों ऐसे दर्शनों का समन्वय बतलाने की दृष्टि से उनके विषयभूत अस्तिनास्त्यात्मक, भाव-अभावात्मक या सत् - असदात्मक दोनों अंशों को लेकर उन पर जो सम्भावित वाक्य या भंग बनाये जाते हैं वही 'सप्तभंगी' है । सप्तभंगी का आधार ही अनेकान्तवाद, स्याद्वाद और नयवाद है या यों कहिए कि 'सप्तभंगी 'वाद' इन सभी वादों या सिद्धान्तों का विश्लेषणात्मक रूपान्तर ही है । इसका ध्येय तो समन्वय अर्थात् अनेकान्त कोटि का व्यापक दर्शन कराना है। जैसे किसी भी प्रमाण से जाने गये पदार्थ का बोध दूसरे को कराने के लिए परार्थ अनुमान वाक्य की रचना की जाती है वैसे ही विरुद्ध अंशों का समन्वय श्रोता को समझाने की दृष्टि से भंग या वाक्य की रचना की जाती है । इन सप्तभंगों या वाक्यप्रकारों में से कोई भी एक भंग वस्तु (तत्त्व) के केवल एक स्वरूप अर्थात् सापेक्ष स्वरूप को ही बतलाता है। अतः वस्तु (तत्त्व) के सम्पूर्ण स्वरूप या अनेकान्तात्मक स्वरूप का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने के लिए 'सप्त भंग न्याय' का प्रयोग ही आवश्यक है । किसी भी प्रश्न के उत्तर में या तो हम 'हाँ' कहते है या 'नहीं', हमारा उत्तर या तो 'विधि रूप' होता है या निषेध रूप । इन 'विधि' और 'निषेध' रूप दृष्टियों को जैन दर्शन में ' अस्ति' और 'नास्ति' नामक दो भिन्न-भिन्न धर्मों द्वारा बताया गया है और इस 'विधि' और 'निषेध' के विकल्प से ही अर्थ में शब्द की प्रवृत्ति सात प्रकार से होती है, इसे ही 'सप्तभंगी' कहते हैं। 'सप्तभंगी वाद' की रचना 170 :: जैनदर्शन में नयवाद Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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