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यदि आज समस्त विश्व अनेकान्त और स्याद्वाद सिद्धान्त को अपना कर चले तो सर्वत्र सुख और शान्ति की उपलब्धि हो सकती है।
सप्तभंगी वाद सप्तभंगी की उपयोगिता और उसका स्वरूप जैनदर्शन में 'सप्तभंगी वाद' या 'सप्तस्वरूपी विधान' का सिद्धान्त एक अपने ही ढंग का सिद्धान्त है। भारतीय दर्शनों में इसका अपना एक विशिष्ट स्थान है। यह विश्व की दार्शनिक समस्याओं एवं गुत्थियों को समन्वयवादी दृष्टिकोण से सुलझाता है, परस्पर विरोधी विचारधाराओं का सापेक्षता के आश्रय से समाधान करता है। इस प्रकार 'सप्तभंगी वाद' के इस सिद्धान्त से विश्व के दर्शनों को बहुत बड़ा योगदान मिला है।
अनुभव और विवेक के प्रकाश में यथार्थ वस्तुस्वरूप का अन्वेषण किया जाय तो मालूम होगा कि एक ही सत्य एवं वास्तविकता के अनेक स्वरूप व गुण होते हैं, जिनका एक साथ सम्पूर्ण विवेचन अवक्तव्य या अकथनीय है।
__ जैनदर्शन की मान्यता है कि किसी भी पूर्णसत्य को केवल एक ही दृष्टिकोण से देखना न्याय-संगत नहीं है। अतएव जैनदर्शन जहाँ एक ओर अद्वैतवाद के स्थिरता या नित्यता के सिद्धान्त को मानता है वहाँ दूसरी ओर बौद्धमत के अस्थिरता या अनित्यता अथवा क्षणभंगता के सिद्धान्त का पक्ष स्वीकार करता है। इन दोनों दृष्टिकोणों में प्रत्येक एकान्त है। इनमें से कोई एक उस वास्तविक सत्य को बताने में असमर्थ है। जैनदर्शन इस बात की ओर गहराई में जाता है कि वस्तु को यदि हम एक दृष्टिकोण से सत् मानते हैं तो दूसरे दृष्टिकोण से वही असत् भी मानी जा सकती है। वस्तु-स्वरूप की यह मान्यता उन परिस्थितियों, अवस्थाओं या मर्यादाओं पर निर्भर करती है, जिनका निर्देश जैनदर्शन ने चार रूपों में किया है, वे हैं-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव। इस प्रकार जैनदर्शन वस्तु-सत्य को जहाँ एक दृष्टिकोण से अस्तिरूप या सत्रूप या नित्य-स्वरूप मानता है, वहाँ उसी सत्य को दूसरे दृष्टिकोण से नास्तिरूप या असत्रूप या अनित्य रूप भी स्वीकार करता है अथवा एक स्थिति में जहाँ वह सामान्य है, दूसरी स्थिति में वही विशेष हो जाता है।
जैनदर्शन सत्य को केवल एक ही दृष्टिकोण से नहीं देखता, क्योंकि सत्य स्वयं अनेक धर्मात्मक या अनेक-स्वरूप वाला है। वह आधुनिक यथार्थवादी के समान यही मानता है कि हमारा निर्णय सापेक्ष है। जबकि वेदान्ती, सांख्य,
तत्त्वाधिगम के उपाय :: 169
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