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________________ विनष्ट करने में ही अपना गौरव प्रकट करता है। स्यावाद को छोड़कर संसार के सभी वादों में आग्रह है, इसीलिए उनमें से विग्रह फूट पड़ते हैं; किन्तु स्याद्वाद तो निराग्रह वाद है, उसमें कहीं भी आग्रह का नाम नहीं है। यही कारण है कि इसमें किसी भी प्रकार के विग्रह का अवकाश नहीं है। स्याद्वाद सर्वांगीण दृष्टिकोण है। उसमें सभी वादों की स्वीकृति है, पर उस स्वीकृति में आग्रह नहीं है। आग्रह तो वहीं है जहाँ से ये विवाद आये हुए हैं। टुकड़ों में विभक्त सत्य को स्याद्वाद ही संकलित कर सकता है। जो वाद भिन्न रहकर पाखण्ड बनते हैं वे ही स्याद्वाद द्वारा समन्वित होकर पदार्थ की सम्पूर्ण अभिव्यक्ति करने लगते हैं। स्याद्वाद सहानुभूतिमय है, इसलिए उसमें समन्वय की क्षमता है। उसकी मौलिकता यही है कि वह पड़ोसी वादों को उदारता के साथ स्वीकार करता है पर वह उनको ज्यों-का-त्यों नहीं लेता। उनके साथ रहने वाले आग्रह के मैल को छोड़कर ही वह उन्हें अपना अंग बनाता है। मनुष्य की कोई भी स्वीकृति, जिसमें किसी भी तरह का आग्रह या हठ न हो, स्याद्वाद के मन्दिर में अपना गौरव-पूर्ण स्थान पा सकती है। तीन सौ त्रेसठ प्रकार के पाखण्ड तभी तक मिथ्या हैं जब तक उनमें अपना ही दुराग्रह है, नहीं तो वे सभी सम्यग्ज्ञान के प्रमेय हैं। उनमें स्याद्वाद के द्वारा समन्वय करने पर, उन्हें सापेक्ष दृष्टिकोण से देखने पर वे कार्यकारी हो सकते हैं। सापेक्षता के अभाव में ही अर्थात केवल अपने विचारों और मन्तव्यों को ही पूर्ण सत्य मानने तथा दूसरे के विचारों और मन्तव्यों की उपेक्षा करने पर ही जगत् में अनेक विवाद और संघर्ष पैदा होते हैं, चाहे वे धर्म और दर्शन को लेकर हों या लौकिक जीवन-व्यवहार को लेकर हों, पर वे होते और पनपते अवश्य हैं। स्यावाद इसीलिए है कि जगत् के उन सारे विरोधों को दूर कर दे। यह विरोध को बर्दाश्त नहीं करता, इसी से हम कह सकते हैं कि जैन धर्म की अहिंसा स्याद्वाद के रग-रग में भरी पड़ी है। अहिंसा का उच्चतम शिखर ही अनेकान्तवाद या स्याद्वाद है। केवल रक्तपात करना, किसी को मौत के घाट उतारना, कटुवचन कहना अथवा दूसरों का अनिष्ट सोचना ही हिंसा नहीं है, प्रत्युत जब हम यह . आग्रह कर बैठते हैं कि जो कुछ हम कह रहे हैं, 'वही सत्य है' और दूसरे जो कुछ कहते हैं वह सर्वथा असत्य है तब भी हम हिंसा ही करते हैं। इससे विपरीत प्रवृत्ति ही अहिंसा है, इसलिए अनेकान्तवादियों ने यह धर्म निकाला कि सत्य के पहलू अनेक हैं। जिसे जो पहलू दिखाई देता है, वह उसी पहलू की बात कहता है और जो पहलू दूसरों को दिखाई देते हैं उनकी बातें दूसरे लोग कहते हैं। इसलिए यह कहना हिंसा है कि 'केवल यही ठीक है'। सच्चा अहिंसक मनुष्य इतना ही तत्त्वाधिगम के उपाय :: 163 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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