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________________ केवल सत् या केवल असत् नहीं है किन्तु कथंचित् या किसी अपेक्षा से सत् है और किसी अपेक्षा से असत् है । कथंचित् शब्द स्याद्वाद का पर्याय है, उसका अर्थ हिन्दी में 'किसी अपेक्षा से' होता है। जैसे केवलज्ञान समस्त द्रव्यों को एक साथ ग्रहण कर लेता है उस तरह कोई वाक्य पूर्ण वस्तु को एक साथ नहीं कह सकता। इसीलिए वाक्य के साथ उसके वाच्यार्थ का सूचक 'स्यात्' शब्द प्रयुक्त किया जाता है। उसके बिना अनेकान्त रूप अर्थ का बोध नहीं हो सकता। यदि वाक्य के साथ 'स्यात् ' शब्द का प्रयोग न हो तब भी जानकारों से वह छिपा नहीं रहता; अर्थ से उसकी प्रतीति हो ही जाती है; क्योंकि किसी पद या वाक्य का अर्थ सर्वथा एकान्त रूप नहीं है । चाहे वह प्रमाण रूप वाक्य हो या नय रूप वाक्य हो । 273 प्रमाण और नय की तरह वाक्य भी प्रमाण रूप और नय रूप होता है । प्रमाण की तरह प्रमाणवाक्य सकलादेशी होता है और नय की तरह नयवाक्य विकलादेशी होता है । इन दोनों प्रकार के वाक्यों में केवल दृष्टिभेद का ही अन्तर है। नय - वाक्य में एकधर्म की मुख्यता होती है और प्रमाण वाक्य में एकधर्म मुखेन सभी धर्मों का ग्रहणं होने से सभी की मुख्यता रहती है। कहा भी है यह 'स्यात्' शब्द तीन संज्ञा वाला है अर्थात् किंचित्, कथंचित्, कथंचन । ये तीन स्याद्वाद के पर्याय शब्द हैं, जिनका अर्थ 'किसी अपेक्षा से' होता है, अतः वह 'स्यात्' शब्द अनेकान्त का साधक होता है। उसके बिना अनेकान्त की सिद्धि नहीं हो सकती । निपात से इस 'स्यात्' शब्द की निष्पत्ति हुई है। यह विरोध का नाश करने वाला है अर्थात् एक ही वस्तु को सर्वथा नित्य और सर्वथा अनित्य मानने में तो विरोध पैदा होता है; क्योंकि जो सर्वथा नित्य है वह अनित्य किस प्रकार हो सकती है और जो सर्वथा अनित्य है वह नित्य किस प्रकार हो सकती है; किन्तु एक ही वस्तु को स्यात् नित्य, स्यात् अनित्य कहने में कोई विरोध नहीं आता । जो किसी अपेक्षा से नित्य है वही अन्य अपेक्षा से अनित्य भी हो सकती है । अत: स्याद्वाद विरोध का नाशक है। जैसे सिद्ध किया गया एक मन्त्र अनेक अभीष्ट फलों को प्रदान करता है वैसे ही एक 'स्यात्' शब्द को भी अनेक अर्थ का अर्थात् अनेक धर्मात्मक पदार्थ का साधक जानना चाहिए। 274 समन्वय का सिद्धान्त संसार में अनेक वाद हैं, उनमें स्याद्वाद भी एक है, पर वह अपनी अद्भुत विशेषता लिये हुए है। संसार के अन्य वाद जब विवादों को उत्पन्न कर संघर्ष की वृद्धि के कारण बन जाते हैं तब स्याद्वाद जगत् के सारे विवादों को समाप्त कर संघर्षों को 162 :: जैनदर्शन में नयवाद Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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