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________________ के रूप का तिङन्त-प्रतिरूपक अव्यय मानकर इसका अर्थ शायद, सम्भव, संशय, कदाचित्, अनिश्चय, आदि करते हैं; किन्तु जैनदर्शन इस स्यात्' शब्द को अनेकान्त को द्योतित करने वाला निपात रूप शब्द मानता है। उसके अनुसार यह एक सुनिश्चित दृष्टिकोण का वाचक है। यह विधिलिङ् में बना तिडन्त प्रतिरूप निपात है। यह 'कथंचित' के अर्थ में विशेष रूप से उपयुक्त बैठता है। कथंचित अर्थात् अमुक निश्चित अपेक्षा से वस्तु अमुक धर्म वाली है। जिस प्रकार शब्दानामनेकार्थत्वात्' अर्थात् ‘शब्दों के अनेक अर्थ होते हैं' इस वाक्य के अनुसार सैन्धव का नमक रूप अर्थ के साथ घोड़ा भी अर्थ होता है, किन्तु प्रकरण के अनुसार वक्ता की दृष्टि को ध्यान में रखकर उचित अर्थ किया जाता है। इसी प्रकार 'स्यात्' शब्द का जैनदर्शन के प्रकरण में अनेकान्त द्योतक 'कथंचित्' किसी अपेक्षा से अर्थ मानना उचित है। अतः 'स्यात्' शब्द का अर्थ शायद, सम्भव, संशय, कदाचित्, अनिश्चय आदि नहीं है, जैसा कि कुछ लोग मानते हैं, किन्तु एक सुनिश्चित दृष्टिकोण है। आश्चर्य की बात है कि डा. राधाकृष्णन् जैसे आलोचक विद्वान् जिस प्रकार स्यावाद की अनेक विरोधी धर्मग्राहक स्थिति को देखते हैं, वैसे उसकी निश्चित अपेक्षा को नहीं देखते हैं। यदि दोनों पहलू समदृष्टि से देखे जाते तो स्याद्वाद को संशयवाद कहने का मौका ही नहीं मिलता। वैसे इसमें कोई सन्देह नहीं 'स्यात्' का अर्थ संशय भी होता है और कदाचित् भी, किन्तु स्याद्वाद, जो अनेकान्त दृष्टि का प्रतिनिधि है, उसमें स्यात्' शब्द को कथंचित् या अपेक्षा के अर्थ में प्रयुक्त किया गया है। स्याद्वाद का अर्थ है 'कथंचित्वाद या अपेक्षावाद। आलोचकों की दृष्टि स्याद्वाद में प्रयुक्त 'स्यात्' का संशय और कदाचित् अर्थ करने की ओर दौड़ती है तो 'कथंचित्' और अपेक्षा की ओर क्यों नहीं दौड़ती है? यदि उनकी दृष्टि कथंचित् और अपेक्षा की ओर जाती तो वे 'स्यात्' का संशय अर्थ न करते। अतः सुनिश्चित दृष्टिकोण, कथंचित् या किसी अपेक्षा अर्थ वाले 'स्यात्' शब्द का प्रत्येक वाक्य के साथ प्रयोग करने से एक वस्तु में एक साथ अस्तित्व-नास्तित्व, नित्यत्व अनित्यत्व आदि परस्पर विरोधी धर्मों की स्थिति में कोई बाधा नहीं आती और इस • प्रकार एकान्त का परिहार होकर अनेकान्तात्मक वस्तु की निर्बाध सिद्धि होती है; क्योंकि वस्तु सर्वथा सत् है, या सर्वथा असत् है या सर्वथा नित्य है अथवा सर्वथा अनित्य है। इस प्रकार के एकान्तवादों का निराकरण करने वाला अनेकान्त है। यथावस्तु स्यात् सत् है, स्यात् असत् है, स्यात् नित्य है, स्यात् अनित्य है। इन वाक्यों में प्रयुक्त 'स्यात्' शब्द वस्तु के सत्त्व धर्म के साथ असत्त्व धर्म का और नित्यत्व धर्म के साथ अनित्यत्व धर्म का भी द्योतन करता है। इससे प्रकट होता है कि वस्तु तत्त्वाधिगम के उपाय :: 161 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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