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________________ है कि केवलज्ञान समस्त तत्त्वों को साक्षात् या प्रत्यक्षरूप से युगपत् जानता है और स्याद्वाद-रूप श्रुतज्ञान असाक्षात् या परोक्षरूप से समस्त तत्त्वों को क्रमश: जानता है और इन दोनों ज्ञानों का जो अविषय है वह अवस्तु ही है।63 स्याद्वाद अनेकान्तात्मक वस्तु का प्रकाशक होने के कारण पूर्णदर्शी है। इनके उत्तरवर्ती आचार्य सिद्धसेन ने भी स्याद्वाद श्रुत का निर्देश करते हुए उसको सम्पूर्ण अर्थ का निश्चय करने वाला कहा है। उक्त सभी मन्तव्यों को हृदयंगम करते हुए आचार्य अकलंक ने भी श्रुत के दो उपयोग बतलाये हैं, एक स्याद्वाद और दूसरा नय। स्याद्वाद सम्पूर्ण वस्तु का कथन करने वाला है और नय वस्तु के एकदेश या धर्म का कथन करने वाला है।265 इस प्रकार समन्तभद्र, सिद्धसेन, अकलंक आदि आचार्यों ने स्याद्वाद को सम्पूर्ण वस्तु अर्थात् अनेकान्तात्मक वस्तु का प्रतिपादक कहा है। वास्तव में स्याद्वाद का उद्गमस्थान है अनेकान्तात्मक वस्तु और अनेकान्त स्वरूप वस्तु के यथार्थ ग्रहण के लिए है अनेकान्त दृष्टि। स्याद्वाद उस दृष्टि को वाणी द्वारा व्यक्त करने की पद्धति है। वह निमित्त भेद या अपेक्षा भेद से निश्चित विरोधी धर्म युगलों का विरोध मिटाने वाला है। जो वस्तु सत् है, वही असत् भी है, किन्तु जिस रूप से सत् है उसी रूप से असत् नहीं है। स्वरूप की दृष्टि से सत् है और पररूप की दृष्टि से असत्। अनेकान्त-दृष्टि को जिस भाषा के माध्यम से अभिव्यक्त किया जाता है वी स्याद्वाद है। स्याद्वाद अनेकान्त के प्रतिपादन करने का साधन या उपाय है। अनेकान्त और स्याद्वाद में प्रतिपाद्य-प्रतिपादक, साध्य-साधक, वाच्यवाचक और द्योत्य-द्योतक सम्बन्ध है। अनेकान्त-दृष्टि ज्ञान-रूप है और स्याद्वाद वचन-रूप है। अनेकान्त दृष्टि है और स्याद्वाद है उस दृष्टि की अभिव्यक्ति की पद्धति । जैनदर्शन के चिन्तन की शैली का नाम अनेकान्त है और प्रतिपादन की शैली का नाम है स्याद्वाद। अनेकान्त और स्याद्वाद एक ही सिद्धान्त के दो पहलू हैं, जैसे एक सिक्के के दो बाजू। अनेकान्त यदि वस्तु दर्शन की विचारपद्धति है तो स्यावाद उसकी भाषा पद्धति। अनेकान्त-दृष्टि को भाषा में उतारना स्याद्वाद है। संक्षेप में स्याद्वाद उस अनेकान्त को अभिव्यक्त करने का वाचिक विधान है। स्याद्वाद अनेक धर्मात्मक पदार्थों में अनेक धर्मों की सापेक्ष दृष्टिकोण से निश्चित स्थिति बताता है। इस प्रकार स्यादवाद एक निर्णायक विकल्प भी है। स्याद्वाद का व्युत्पत्तिपरक लक्षण 'स्याद्वाद' शब्द स्यात् और वाद इन दो पदों के मेल से बना है। 'स्यात्' शब्द तिङन्त पद जैसा प्रतीत होता है, किन्तु यह तिङन्त प्रतिरूपक अव्यय है। इसके तत्त्वाधिगम के उपाय :: 159 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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