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________________ सन्निहित हैं । निरपेक्ष दृष्टि से इनका समन्वय नहीं बन सकता और न ही वस्तुस्वरूप तथा लोक - व्यवहार की सिद्धि हो सकती है । अतः वस्तुस्वरूप तथा लोक- क- व्यवहार की सिद्धि के लिए अनेकान्तवाद की उपयोगिता पूर्णतया सिद्ध होती है । अनेकान्त का प्रतिपादक स्याद्वाद जैनदर्शन के अनुसार प्रत्येक वस्तु अनेकान्तात्मक या अनेक धर्मात्मक है अर्थात् वस्तु परस्पर में विरुद्ध प्रतीत होने वाले सापेक्ष अनेक धर्मों का समूह है। न वह सर्वथा सत् ही है, न सर्वथा असत् ही, न सर्वथा नित्य ही है और न सर्वथा अनित्य ही है; किन्तु किसी अपेक्षा से वस्तु सत् है तो किसी अपेक्षा से असत्, किसी अपेक्षा से नित्य है तो किसी अपेक्षा से अनित्य है । इस प्रकार वस्तु अनेकान्तात्मक है। इस अनेकान्तात्मक वस्तु के कथन करने का नाम स्याद्वाद है। 260 स्याद्वाद के बिना अनेकान्तात्मक वस्तु का कथन नहीं किया जा सकता अर्थात् श्रोता को वस्तु के अनेक धर्मों का ज्ञान नहीं कराया जा सकता । आचार्य समन्तभद्र261 ने तत्त्वज्ञान को प्रमाण बतलाकर उसे स्याद्वाद तथा नय (अंशात्मक नैगमादि) से सुसंस्कृत बतलाया है । तत्त्वज्ञान से मतलब है यथार्थ रूप से पदार्थों को जानने वाला ज्ञान, जो प्रमाण कहलाता है और वह दो प्रकार का होता है - एक अक्रमभावि और दूसरा क्रमभावि । जो एक साथ समस्त पदार्थों का प्रकाशक है, वह अक्रमभावि है, जिसे केवलज्ञान कहते हैं । और जो क्रम -क्रम से पदार्थों का प्रकाशन करता है वह क्रमभावि है, जो स्याद्वाद और नय दोनों रूप होता है । स्याद्वाद से सम्पूर्ण पदार्थों और उन पदार्थों की भूत, भविष्यत्, वर्तमानकालीन अनन्त पर्यायों का एक साथ ज्ञान होता है। उन्होंने स्याद्वाद का स्वरूप बतलाते हुए कहा है - जो सर्वथा एकान्त का परित्याग कर अर्थात् एकान्त के अभाव में अनेकान्त को स्वीकार करके सात भंग और नयों की अपेक्षा से वस्तुतत्त्व का प्रतिपादन करता है, 'किं' शब्द निष्पन्न 'चित्' प्रकार के रूप में किंचित्, कथंचित्, कथंचन आदि का वाचक है और हेयोपादेय का विशेषक (भेदक) होता है, अर्थात् जो हेय और उपादेय की विशेष रूप से व्यवस्था करता है, उसे स्याद्वाद कहते हैं 1262 इससे आगे उन्होंने श्रुत के लिए स्याद्वाद शब्द का प्रयोग करते हुए कहा है कि स्याद्वाद (श्रुत) और केवलज्ञान ये दोनों समस्त तत्त्वों के प्रकाशक हैं। इस दृष्टि से इन दोनों में कोई अन्तर नहीं है; क्योंकि केवलज्ञान समस्त तत्त्वों को जानता है और स्याद्वाद भी समस्त तत्त्वों को जानता है, किन्तु दोनों में केवल यही भेद 158 :: जैनदर्शन में नयवाद Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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