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________________ पररूप से भी सत् रूप ( भावरूप ) स्वीकार किया जाय, असत् रूप ( अभावरूप ) न माना जाय तो एक वस्तु के सद्भाव में सम्पूर्ण वस्तुओं का सद्भाव माना जाना चाहिए और यदि वस्तु को स्वरूप में भी असत् रूप ( अभाव रूप ) माना जाय, सत् रूप न माना जाय तो वस्तु को सर्वथा स्वभाव रहित मानना होगा। ऐसी स्थिति में वस्तु का कोई स्वरूप ही नहीं रह जाएगा, जो वस्तुस्वरूप से सर्वथा विपरीत है। स्वरूप के ग्रहण और पररूप के त्याग की व्यवस्था से ही वस्तु में वस्तुत्व की व्यवस्था सुघटित होती है, अन्यथा नहीं । अतः प्रत्येक वस्तु स्वरूप की अपेक्षा सद्रूप है और पररूप की अपेक्षा असद्रूप है। यदि स्वरूप की तरह पररूप से भी वस्तु को सत् माना जाय तो चेतन के अचेतन रूप होने का प्रसंग आता है और यदि पररूप की तरह स्वरूप से भी असत् माना जाय तो सर्वथा शून्यता की आपत्ति खड़ी होती है अथवा जिस रूप से सत्त्व है उसी रूप से असत्त्व को और जिस रूप से असत्त्व है उसी रूप से सत्त्व को माना जाय तो कुछ भी घटित नहीं होता । अतः वस्तु स्वरूप को अन्यथा मानने में तत्त्व या वस्तु की कोई व्यवस्था ही नहीं बनती है। इसी प्रकार वस्तु को सर्वथा नित्य रूप मानने पर, जैसा कि न्यायवैशेषिक आदि मानते हैं, वस्तु में अर्थक्रिया नहीं बनेगी और अर्थक्रिया के अभाव में वस्तु का ही अभाव हो जाएगा। सर्वथा अनित्य मानने पर जैसा कि बौद्धदर्शन मानता है, वस्तु का निरन्वय विनाश हो जाने से उसमें भी अर्थ - क्रिया नहीं बनेगी और अर्थ - क्रिया के अभाव में वस्तु का भी अभाव हो जाएगा । वस्तु को सर्वथा एक रूप मानने पर उसमें विशेष धर्मों का अभाव हो जाएगा और विशेष के अभाव में सामान्य का भी अभाव हो जाएगा; क्योंकि बिना विशेष के सामान्य और बिना सामान्य के विशेष गधे के सींग की तरह सम्भव नहीं है अर्थात् सामान्य विशेष के बिना नहीं रहता और विशेष सामान्य के बिना नहीं रहता । अतः दोनों का अभाव हो जाएगा 1259 तात्पर्य यह है कि यदि किसी पुरुष की सामान्य की दृष्टि विशेष की अपेक्षा से रहित है तो सामान्य सिद्ध नहीं हो पाएगा । 'वस्तु द्रव्य-दृष्टि से नित्य है' यह कथन तभी सम्भव हो सकता है जब वस्तु पर्याय की दृष्टि से अनित्य मानी जाए तथा 'वस्तु पर्याय की दृष्टि से अनित्य है' यह कथन भी तभी सम्भव है जब वस्तु को द्रव्य- दृष्टि से नित्य माना जाए। अतः वस्तु की नित्यता और अनित्यता परस्पर की सापेक्षता पर आधारित है। इस प्रकार एक--अनेक, सत्-असत्, भिन्न- अभिन्न, नित्य-अनित्य आदि अनेक विरोधी धर्म- युगल एक ही वस्तु में सापेक्ष दृष्टि से Jain Education International तत्त्वाधिगम के उपाय :: 157 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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