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________________ है । यदि घट-भिन्न पटादि पदार्थों का नास्तित्व धर्म घट में न माना जाय तो घट और पटादि अन्य पदार्थ मिलकर एक हो जाएँगे, उनमें कोई अन्तर ही नहीं रहेगा। वस्तु के 'अस्तित्व' धर्म को प्रधान मानने पर सद्भाव - सूचक दृष्टि समक्ष आती है और जब निषेध किये जाने वाले धर्म मुख्य होते हैं तब 'नास्ति' नामकं द्वितीय दृष्टि उदित होती है । वस्तु अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से 'सत्' स्वरूप है और वही वस्तु अन्य पदार्थों की अपेक्षा से 'असत्' स्वरूप है। आम अपने स्वरूप की अपेक्षा सद्भाव रूप है, लेकिन आम से भिन्न अमरूद, नींबू आदि पदार्थों की अपेक्षा असद्भाव रूप है। यदि स्वरूप की अपेक्षा आम के सद्भाव के समान पररूप की अपेक्षा भी आम का सद्भाव हो तो आम, अमरूद, नींबू आदि में कोई अन्तर ही नहीं रहेगा । इसी प्रकार यदि अमरूद आदि आम से भिन्न पदार्थों की अपेक्षा जैसे आम को असद्भावरूप या नास्तिरूप कहते हैं उसी प्रकार स्वरूप की अपेक्षा भी यदि आम नास्तिरूप हो जाय तो आम का सद्भाव ही नहीं रहेगा । इसी बात को स्पष्ट करते हुए आचार्य समन्तभद्र 254 ने कहा है- ऐसा कौन है जो समस्त चेतन, अचेतन, द्रव्य और पर्याय आदि को 25 स्वरूपादि चतुष्टय (स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव ) की अपेक्षा से सत् स्वरूप ही और परचतुष्टय256 (पर-द्रव्य, पर- क्षेत्र, पर-काल और पर - भाव ) की अपेक्षा से असत् स्वरूप ही न माने ? कोई भी, चाहे वह लौकिक जन हो या परीक्षक, स्यादवादी हो या सर्वथा एकान्तवादी ; यदि वह सचेतन है तो उसे ऐसा मानना ही होगा; क्योंकि यदि वस्तु को स्वद्रव्यादि की अपेक्षा सत् स्वरूप और पर द्रव्यादि की अपेक्षा असत् स्वरूप न माना जाय तो किसी भी वस्तु - स्वरूप की व्यवस्था नहीं हो सकती है। आचार्य अकलंक देव 258 ने भी इसी को स्पष्ट किया है-अपनी सत्ता का स्वीकार और पर- सत्ता का अस्वीकार ही वस्तु का वस्तुत्व है। अर्थात् वस्तु का वस्तुत्व इसी व्यवस्था पर निर्भर है कि वह अपने स्वरूप का उपादान (ग्रहण ) करे और पर-स्वरूप का अपोहन ( परिहार या परित्याग ) करे अर्थात् वस्तु स्वरूप की अपेक्षा सद्भाव रूप हो और पररूप की अपेक्षा अभाव रूप हो । यदि वस्तु में 'स्व' की सत्ता की भाँति पर की असत्ता नहीं हो तो उसका स्वरूप ही नहीं बन सकता। आचार्य हेमचन्द्र258 भी एक उद्धरण देते हुए कहते हैं - प्रत्येक वस्तु स्वरूप से सत् (विद्यमान ) है और पररूप से असत् ( अविद्यमान ) है । यदि वस्तु को 156 :: जैनदर्शन में नयवाद Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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