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________________ है और एकान्त अपूर्ण स्वरूप को। एकान्त मिथ्या अभिनिवेश के कारण वस्तु के एक अंश को ही पूर्ण वस्तु मान बैठता है और कहता है कि वस्तु इतनी ही है, ऐसी ही है। इसी से विभिन्न प्रकार के मतभेद और झगड़े उत्पन्न होते हैं। एक दर्शन या मान्यता का दूसरे दर्शन या मान्यता से विरोध हो जाता है, किन्तु अनेकान्त उस विरोध का परिहार करके उनमें समन्वय स्थापित करता है। अनेकान्त एकान्तवादी दर्शनों की भूल बतलाकर वस्तु के सत्य स्वरूप को उनके समक्ष प्रस्तुत करता है। वह साम्प्रदायिक मतभेद और कलह को शान्त करता है। केवल साम्प्रदायिक मतभेद और कलह को ही नहीं अपितु जीवन के हर क्षेत्र में-क्या तो पारिवारिक, क्या सामाजिक और क्या राष्ट्रीय, सभी समस्याओं का समाधान कर उनमें, प्रेम एवं सद्भावना के सुखद वातावरण का निर्माण करता है। कलह और संघर्ष एक दूसरे के दृष्टिकोण को न समझने के कारण ही होता है। अनेकान्त दूसरे के दृष्टिकोण को समझने में सहायक होता है। वास्तव में सारा झगड़ा 'ही' और 'भी' के प्रयोग का है। एकान्तवादी दर्शन कहते हैं कि वस्तुस्वरूप 'ऐसा ही' है और अनेकान्तवादी जैनदर्शन कहता है कि वस्तुस्वरूप 'ऐसा भी है। ये कथन निरपेक्षता और सापेक्षता को बतलाते हैं। कथन व ज्ञान में निरपेक्षता एकान्तदष्टि है, जो विवादों और संघर्षों की जननी है जबकि सापेक्षता अनेकान्त-दृष्टि है जो उन विवादों को दूर करने वाली है। कितने ही दर्शन वस्तु को सर्वथा सत् ही कहते हैं तो इनसे भिन्न अन्य दर्शन उसी वस्तु को सर्वथा असत् ही कहते हैं। इसप्रकार के कथन सर्वथा विवादास्पद हैं, किन्तु अनेकान्तवादी जैनदर्शन वस्तु को एक साथ सद्-असदात्मक सिद्ध करके उनके विरोधों और विवादों को शान्त कर देता है। वह कहता है कि प्रत्येक वस्तु सत् भी है और असत् भी है। अपने निजस्वरूप की अपेक्षा से वस्तु सत् है और पर-स्वरूप की अपेक्षा से असत् है। अपने पुत्र की अपेक्षा पिता सत् है और पर पुत्र की अपेक्षा से पिता पितारूप से असत् है। यदि वह परपुत्र की अपेक्षा से भी पिता ही है तो सारे संसार का भी पिता हो जाएगा जो सर्वथा असम्भव ही है। बात यह है कि जगत् की प्रत्येक वस्तु अनन्त धर्मात्मक है, उसमें परस्पर में विरुद्ध प्रतीत होने वाले अस्ति-नास्ति या सत्-असत्, नित्य-अनित्य आदि अनन्त धर्म-युगल विभिन्न विवक्षाओं से विद्यमान हैं। इन विरोधी अनेक धर्मों का तादात्म्यरूप ही तो वस्तु है। वस्तु में प्रत्येक धर्म का विरोधी धर्म भी दृष्टिभेद से सम्भव है। जिस प्रकार 'स्यादस्ति घटः' इसमें घट' अपने द्रव्य,252 क्षेत्र, काल और भाव की मर्यादा से है अर्थात् 'घट' में अपने स्वचतुष्टय की अपेक्षा से 'अस्तित्व म' है। उसी तरह घट व्यतिरिक्त पटादि पदार्थों का 'नास्तित्व धर्म' भी घट में तत्त्वाधिगम के उपाय :: 155 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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