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________________ तदाकार या अतदाकार में विवक्षित वस्तु की कल्पना कर ली जाती है और संकेत द्वारा उसका बोध करा दिया जाता है। नाम और स्थापना निक्षेप में अन्तर-नाम-निक्षेप में पहचान और स्थापना में आकार की भावना होती है। नाम निक्षेप में जिस प्रकार गुण की अपेक्षा का सर्वथा अभाव है उसप्रकार स्थापना-निक्षेप में नहीं है। नाम निक्षेप में आदर और अनुग्रह अथवा पूज्य और अपूज्य का व्यवहार नहीं होता है। किन्तु स्थापना-निक्षेप में यह व्यवहार होता है। जैसे-भगवान महावीर या भगवान राम की मूर्ति में भगवान महावीर या भगवान राम के समान ही आदर या पूज्यता का भाव होता है किन्तु किसी नाम वाले व्यक्ति में यह भाव नहीं होता है। ____ 3. द्रव्य निक्षेप–किसी वस्तु की जो पर्याय आगे होने वाली है उसे पहले से ही उस पर्याय रूप कहना अथवा जो पर्याय हो चुकी है उसका व्यवहार वर्तमान में करना द्रव्य निक्षेप है। द्रव्य मूल वस्तु की पूर्वोत्तर दशा या उससे सम्बन्ध रखने वाली अन्य वस्तु होती है ।27 जैसे-राजपुत्र या युवराज को भी राजा कहना। यद्यपि यह वर्तमान में राजा नहीं है, किन्तु भविष्य में होने वाला है फिर भी उसको वर्तमान में राजा कहने लगना अथवा जो पहले कभी राजा था, किन्तु उसने अब राजपद का त्याग कर दिया है फिर भी उसे राजा कहते रहना। यह सब द्रव्य निक्षेप का विषय है अथवा भूत, भविष्यत् पर्याय की मुख्यता लेकर वर्तमान में कहना द्रव्य निक्षेप है। यह द्रव्य निक्षेप अर्थात्मक व्यवहार का प्रयोजक है। ... द्रव्य निक्षेप के दो भेद हैं-1. आगम द्रव्य निक्षेप, 2. नोआगम द्रव्य निक्षेप 28 - आगम द्रव्य निक्षेप–निक्षेप्य पदार्थ के प्ररूपक शास्त्र के उपयोग रहित ज्ञाता को आगम द्रव्य-निक्षेप कहते हैं। अथवा जो जीव विषयक शास्त्र को जानता है, किन्तु वर्तमान में उसके उपयोग से रहित है। जैसे-सुदर्शन मेरू का स्वरूपनिरूपण करने वाला 'त्रिलोकसार' ग्रन्थ का जानने वाला पुरुष जिस काल में सुदर्शन मेरू के कथन में उपयोग सहित नहीं है उस काल में उस जीव को सुदर्शन मेरू का आगम-द्रव्य-निक्षेप कहते है। नोआगम द्रव्य निक्षेप तीन प्रकार का है-229 1. ज्ञायक शरीर, 2. भावि, 3. तद्व्यतिरिक्त। (1) ज्ञायक शरीर नोआगम द्रव्य निक्षेप-निक्षेप्य पदार्थनिरूपक शास्त्र के अनुपयुक्त ज्ञाता के शरीर को ज्ञायक शरीर नोआगम द्रव्य निक्षेप कहते हैं। जैसेकर-पदार्थ का निरूपक जो शास्त्र है उस शास्त्र के अनुपयुक्त ज्ञाता के शरीर को तत्त्वाधिगम के उपाय :: 147 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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