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________________ आचार्य उमास्वामी ने निक्षेप की विस्तार शैली को न अपना कर संक्षेप में ही निक्षेप के केवल चार भेद किये है- नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव से उन सम्यग्दर्शन आदि तथा जीव आदि तत्त्वों का न्यास अर्थात् निक्षेप होता है । 223 इस प्रकार सामान्यतः निक्षेप के नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव- ये चार भेद ही सर्वमान्य हैं। 1. नाम निक्षेप - द्रव्य, जाति, गुण, क्रिया आदि शब्द प्रवृत्ति के निमित्त होते हैं । इनमें से किसी भी निमित्त की अपेक्षा किये बिना ही केवल व्यवहार की सिद्धि के लिए अपनी इच्छानुसार किसी की कोई संज्ञा या नाम रख लेना नाम निक्षेप हैं। जैसे -- किसी मूर्ख व्यक्ति का भी नाम विद्याधर या वाचस्पति रख दिया जाता है। अथवा किसी निर्धन व्यक्ति को भी लक्ष्मीधर या करोड़ीमल कहा जा सकता है। अथवा किसी में माणिक और लाल, रत्न के गुण न रहने पर भी उसका नाम माणिकलाल, रतनचन्द्र आदि रख दिया जाता है। '224 यह नाम निक्षेप शब्दात्मक व्यवहार का प्रयोजक होता है। इसकी प्रक्रिया केवल लोक - व्यवहार को चलाने के लिए ही होती है। इसमें व्यक्ति के अन्दर उस प्रकार गुण, जाति तथा क्रिया आदि का होना आवश्यक नहीं है, जैसा उसे नाम दिया गया है। 1 2. स्थापना निक्षेप - धातु, काष्ठ, पाषाण आदि की प्रतिमा तथा अन्य पदार्थों में 'यह वह है' इस प्रकार किसी की कल्पना करना स्थापना निक्षेप है 225 स्थापना निक्षेप के भी दो भेद हैं- 1. तदाकार या सद्भाव स्थापना और 2. अतदाकार या असद्भाव स्थापना 1 226 तदाकार स्थापना - एक व्यक्ति अपने गुरु के चित्र को गुरु मानता है यह तदाकार या सद्भाव स्थापना है । अथवा जिस पदार्थ का जैसा आकार है उसमें उसी आकार वाले की कल्पना या आरोप करना तदाकार या सद्भाव स्थापना है । जैसेभगवान महावीर या भगवान राम की मूर्ति में भगवान महावीर या भगवान राम की कल्पना करना । अतदाकार या असद्भाव स्थापना - कोई व्यक्ति शंख या पाषाण में अपने गुरु का आरोप या कल्पना कर लेता है, यह अतदाकार स्थापना है अथवा भिन्न आकार वाले पदार्थों में किसी भिन्न आकार वाले की कल्पना करना अतदाकार स्थापना है। जैसे - शतरंज की मुहरों में बादशाह, वजीर, घोड़े आदि की स्थापना या कल्पना करना । स्थापना निक्षेप में जो अर्थ तद्रूप नहीं है उसे तद्रूप भी मान लिया जाता है । यह निक्षेप ज्ञानात्मक व्यवहार का प्रयोजक है । इस निक्षेप में ज्ञान के द्वारा 146 :: जैनदर्शन में नयवाद Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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