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________________ श्रोता को प्रकत विषय की व्युत्पत्ति के द्वारा अप्रकृत विषय का निराकरण करने के लिए भाव निक्षेप का कथन करना चाहिए। यदि वह अव्युत्पन्न श्रोता द्रव्यार्थिक दृष्टि वाला है अर्थात् सामान्य रूप से किसी वस्तु का स्वरूप जानना चाहता है तो उसके लिए निक्षेपों द्वारा प्रकृत पदार्थ का निरूपण करने के लिए सब निक्षेपों का कथन करना चाहिए। क्योंकि विशेष धर्मों का निर्णय हुए बिना सामान्य धर्म का निर्णय नहीं हो सकता। तीसरी जाति के श्रोताओं को यदि सन्देह हो तो उनके सन्देह को दूर करने के लिए सब निक्षेपों का कथन करना चाहिए और यदि उन्हें विपरीत ज्ञान हो गया हो तो प्रकृत अर्थात् विवक्षित वस्तु के निर्णय के लिए सम्पूर्ण निक्षेपों का कथन करना चाहिए। कहा भी है-अप्रकृत विषय के निवारण करने के लिए, प्रकृत विषय के निरूपण करने के लिए, संशय का विनाश करने के लिए और तत्त्वार्थ का निश्चय करने के लिए निक्षेपों का कथन करना चाहिए। क्योंकि निक्षेपों के बिना वर्णन किया गया सिद्धान्त वक्ता और श्रोता दोनों को कुमार्ग में ले जा सकता है। इसलिए भी निक्षेपों का कथन आवश्यक है। 218 (2) निक्षेप के भेद-यदि विस्तार से विचार किया जाय तो वस्तु-विन्यास के जितने क्रम हैं, उतने ही निक्षेप हैं। कितने ही ग्रन्थकारों ने निक्षेपों के सम्भाव्य अनेक भेदों का उल्लेख भी किया है। श्री वीरसेन स्वामी ने निक्षेप के छह भेद किये हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इससे आगे इसी धवला टीका में निक्षेपों के कथन का प्रयोजन बतलाने के लिए एक प्राचीन गाथा उद्धत है, जिसमें कहा गया है-'जहाँ जीवादि पदार्थों के विषय में बहुत जाने, वहाँ पर नियम से सभी निक्षेपों के द्वारा उन पदार्थों का विचार करना चाहिए और जहाँ बहुत न जाने, वहाँ चार निक्षेपों के द्वारा पदार्थों का विचार अवश्य करना चाहिए। 220 इस प्राचीन गाथा के उल्लेख से प्रतीत होता है कि प्राचीन आचार्यों ने भी निक्षेप के विस्तार से अनेक भेद किये हैं और संक्षेप में कम से कम चार भेद किये आचार्य यतिवृषभ ने 'निक्षेप के नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव ये छह भेद किये हैं। 21 आचार्य अकलंकदेव ने निक्षेप को अनन्त प्रकार का बतलाकर भी उसके नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव के ये चार भेद किये हैं। संक्षेप में निक्षेप के ये ही चार भेद हैं, किन्तु विस्तार से वह निक्षेप गप्रविष्ट और अंगबहि आदि अनेक भेदों वाला है।22 तत्त्वाधिगम के उपाय :: 145 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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