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नाम 'निक्षेप' है। 214
आचार्य देवसेन ने 'प्रमाण और नय के निक्षेपण या आरोपण को 'निक्षेप' कहा है। 'निक्षेप' शब्द का अर्थ है 'रखना'। अतएव प्रयोजनवश नाम, स्थापना द्रव्य और भाव में पदार्थ के निक्षेपण, स्थापन या आरोपण को निक्षेप कहा है। 215
श्री माइल्ल धवल ने भी 'युक्ति के द्वारा सुयुक्त मार्ग में कार्यवश से नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव में पदार्थ की स्थापना को निक्षेप कहा है। 216
उक्त कथन का निष्कर्ष यह है कि जिस पदार्थ का प्रत्यक्षादि प्रमाणों के द्वारा, नैगमादि नयों के द्वारा तथा नामादि निक्षेपों के द्वारा सूक्ष्म दृष्टि से विचार नहीं किया जाता, वह पदार्थ कभी युक्त (संगत) होते हुए अयुक्त (असंगत) सा प्रतीत होता है और कभी अयुक्त होते हुए भी युक्त सा प्रतीत होता है। अतः प्रमाण, नय और निक्षेप के द्वारा पदार्थ का निर्णय करना चाहिए। जो विद्वान निक्षेप, नय और प्रमाण को जानकर तत्त्वमीमांसा करते है वे ही वास्तविक तत्त्व का ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। इसी प्रकार जो गुण, पर्याय, लक्षण, स्वभाव, निक्षेप, नय और प्रमाण को भेदप्रभेद सहित जानते हैं, वे ही द्रव्य स्वभाव को समझ सकते है। अतः द्रव्य स्वभाव या द्रव्य स्वरूप को समझने के लिए निक्षेप आदि का जानना आवश्यक है। ___आचार्य पूज्यपाद ने निक्षेप की उपयोगिता और प्रयोजन बतलाते हुए कहा है, 'अप्रकृत का निराकरण करने के लिए और प्रकृत का निरूपण करने के लिए निक्षेप का कथन किया जाता है। अर्थात् किस शब्द का क्या अर्थ है ? यह निक्षेप विधि के द्वारा विस्तार से बतलाया जाता है। 217
इसी प्रकार आचार्य यतिवृषभ तथा जिनभद्रगणि आदि सभी आचार्यों ने निक्षेप के विषय में ये ही भाव अभिव्यक्त किये हैं।
निक्षेप के प्रयोजन का विवेचन करते हुए आचार्य वीरसेन स्वामी ने लिखा है-श्रोता तीन प्रकार के होते हैं-पहला अव्युत्पन्न अर्थात् वस्तु-स्वरूप से अनभिज्ञ, दूसरा सम्पूर्ण रूप से विवक्षित पदार्थ को जानने वाला, तीसरा विवक्षित पदार्थ को एकदेश से जानने वाला। इनमें से पहला श्रोता तो अव्युत्पन्न होने के कारण विवक्षित पद के अर्थ को कुछ भी नहीं समझता। दूसरा श्रोता वस्तु के यथार्थ का सम्यक् ज्ञान कर लेता है। तीसरा यहाँ पर इस पद का कौन सा अर्थ अधिकृत है? इस प्रकार विवक्षित पद के अर्थ में सन्देह करता है, अथवा प्रकरण प्राप्त अर्थ को छोड़कर और दूसरे अर्थ को ग्रहण करके विपरीत समझता है। यह प्रकृत पद के अर्थ में या तो सन्देह करता है या विपरीत निश्चय कर लेता है।
इनमें से यदि अव्युत्पन्न श्रोता पर्याय का अर्थी अर्थात् पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा वस्तु की किसी विवक्षित पर्याय को जानना चाहता है तो उस अव्युत्पन्न
144 :: जैनदर्शन में नयवाद
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