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________________ के इस उपक्रम से अप्रकृत अर्थ का निराकरण होकर प्रकृत अर्थ का ग्रहण हो जाता है जिससे व्यवहार करने में किसी भी प्रकार की असुविधा नहीं होती है और इससे वक्ता और श्रोता दोनों ही एक दूसरे के आशय को भली प्रकार समझ लेते हैं। जैनाचार्यों ने जैनागम साहित्य में व्याख्या की परिपाटी में इस निक्षेप विधि का अधिक विश्लेषण किया है। ___आचार्य उमास्वाति ने कहा है-'लक्षण और भेदों के द्वारा पदार्थों का ज्ञान जितने विस्तार के साथ हो सके ऐसे व्यवहार-रूप उपाय को 'न्यास' अथवा 'निक्षेप' कहते हैं। 207 आचार्य वीरसेन स्वामी ने निक्षेप शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए कहा है-'जो किसी एक निश्चय या निर्णय में क्षेपण करे अर्थात् अनिर्णीत वस्तु का उसके नामादि द्वारा निर्णय कराता है, उसे निक्षेप कहते हैं। 208 श्री जिनभद्रगणि ने भी 'निक्षेप' शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए लिखा है, 'जिससे वस्तु या पदार्थ का उसके नाम, स्थापना आदि भेदों के द्वारा व्यवस्थापन, क्षेपण, न्यास, निश्चय या निर्णय किया जाता है, उसे निक्षेप कहते हैं। 29 - श्री यशोविजयगणि ने 'शब्द और अर्थ की ऐसी विशेष रचना को निक्षेप कहा है, जिससे प्रकरण आदि के अनुसार अप्रतिपत्ति आदि का निवारण होकर यथास्थान विनियोग होता है। 210 ___ आचार्य अकलंकदेव ने निक्षेपों का अनेक प्रकार से विवेचन करते हुए लिखा है-'आत्मा आदि पदार्थों का जो ज्ञान है वही प्रमाण है और उनको जानने का जो उपाय है वह 'न्यास' अथवा 'निक्षेप' है।1 निक्षेप पदार्थों के विश्लेषण के उपायभूत हैं। उन्हें नयों द्वारा ठीक-ठीक समझकर शब्दात्मक, अर्थात्मक और ज्ञानात्मक भेदों की रचना करनी चाहिए। इससे अप्रस्तुत अर्थ का निषेध और प्रस्तुत अर्थ का निरूपण हो जाता है। 13 . उन्होंने अपने 'सिद्धि-विनिश्चय' ग्रन्थ में भी लिखा है, 'किसी धर्मी (वस्त) में नय के द्वारा जाने गये धर्मों की योजना करने को निक्षेप कहते हैं। निक्षेप के अनन्त भेद हैं। किन्तु उसके संक्षेप में चार भेद हैं। अप्रस्तुत का निराकरण करके प्रस्तुत का निरूपण करना उसका प्रयोजन है। यह निक्षेप द्रव्यार्थिक एवं पर्यायार्थिक नय के द्वारा जीवादि तत्त्वों के जानने में कारण है। निक्षेप से केवल तत्त्वार्थ का ज्ञान ही नहीं होता, संशय विपर्यय आदि भी दूर हो जाते हैं। शब्द से अर्थ का ज्ञान होने में निक्षेप निमित्त है, क्योंकि वह शब्दों में यथाशक्ति उनके वाच्यों के भेद की रचना करता है। इसलिए ज्ञाता के श्रुत-विषयक विकल्पों की उपलब्धि के उपयोग का तत्त्वाधिगम के उपाय :: 143 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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