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________________ है और इसी से वस्तु-स्वरूप की सिद्धि होती है। ___इसप्रकार नय की उपयोगिता न केवल सैद्धान्तिक और आध्यात्मिक दृष्टि से . है, किन्तु जीवन-जगत् के लौकिक व्यवहारों में भी प्रतिक्षण इसकी उपयोगिता सिद्ध होती है। यह समस्त प्रकार के विवादों, मतभेदों और संघर्षों को समाप्त कर जीवन को प्रशस्त बनाता है। यही जैनदर्शन का नय-निरूपण है। निक्षेप ' (1) निक्षेप की उपयोगिता और उसका स्वरूप-निक्षेप का सिद्धान्त जैनदर्शन की एक मौलिक देन है। जैनदर्शनकारों ने तत्त्वाधिगम के उपायों में निक्षेप-पद्धति को भी अपनाया है; क्योंकि समस्त तत्त्वों या पदार्थों का ज्ञान निक्षेप विधि पर ही आधारित है। संसारी जीवों का समस्त व्यवहार पदार्थाश्रित है। पदार्थ अनेक और अनन्तधर्मात्मक हैं। उन सबका व्यवहार एक साथ नहीं हो सकता। वे अपनी-अपनी पर्याय में पृथक्-पृथक् होते हैं। उनकी पहचान भी पृथक्-पृथक् होती है। इन्हीं अनन्त धर्मात्मक पदार्थों को व्यवहार में लाने के लिए किये जाने वाले प्रयत्नों में निक्षेप का महत्त्वपूर्ण स्थान है। जगत् में शब्द, ज्ञान और अर्थ, तीन प्रकार से व्यवहार चलते हैं। कहीं शब्दात्मक व्यवहार से काम चलता है तो कहीं ज्ञानात्मक व्यवहार से और कहीं अर्थात्मक व्यवहार से। अनन्त धर्मात्मक वस्तु को संव्यवहार के लिए इन तीन प्रकार के व्यवहारों में बाँटना 'निक्षेप' है। 'निक्षेप' शब्द 'नि' उपसर्ग पूर्वक 'क्षिप्' धातु से बना है, जिसका अर्थ है, 'रखना' । 'न्यास' शब्द का भी यही अर्थ है। अर्थात् वस्तु का विश्लेषण कर उसकी स्थिति की जितने प्रकार की सम्भावनाएँ हो सकती हैं उनको सामने रखना 'निक्षेप' है। आशय यह है कि विवेच्य पदार्थ जितने प्रकार का हो सकता है उतने सब सम्भावित प्रकार सामने रखकर अप्रस्तुत का निराकरण करके विवक्षित पदार्थ को ग्रहण करना 'निक्षेप' है। प्रमाण और नय के अनुसार प्रचलित लोक-व्यवहार को भी 'निक्षेप' कहते हैं। लोक और शास्त्रों में एक-एक शब्द का अनेक अर्थों में प्रयोग किया जाता है। यह प्रयोग कहाँ और किस अर्थ में किया गया है? इस विषय को बतलाना ही निक्षेप-विधि का काम है। ___ वक्ता के मुख से निकले हुए शब्द के अपेक्षा को लेकर भिन्न-भिन्न अर्थ होते हैं, उन अर्थों में दोष न आए और वास्तविक अर्थ का ठीक-ठीक परिज्ञान हो जाए, यह बतलाने के लिए ही शास्त्रों में निक्षेप का उपक्रम किया गया है। निक्षेप 142 :: जैनदर्शन में नयवाद Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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