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________________ अन्य अंशों पर उपेक्षा भाव रखता है और नयाभास या दुर्नय उन अंशों का निषेध करता है। यही नय और दुर्नय में अन्तर है। __ सुनय और दुर्नय की सापेक्षता एवं निरपेक्षता का विवेचन करते हुए स्वामि कुमार ने कहा है-'जो वस्तु अनेकान्त रूप है वही सापेक्ष दृष्टि से एकान्त रूप भी है। श्रुतज्ञान की अपेक्षा वस्तु अनेकान्त रूप है और नयों की अपेक्षा एकान्त रूप है। बिना अपेक्षा के वस्तु का स्वरूप देखा ही नहीं जा सकता है। 205 श्रुतज्ञान-रूप प्रमाण से जानी हुई वस्तु में अपेक्षा भेद से किसी एक धर्म को ग्रहण करने वाले ज्ञान को नय कहते हैं। प्रमाण से अनेक धर्मात्मक वस्तु को जानकर ऐसा जानना कि वस्तु स्वचतुष्टय अर्थात् अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा सत् स्वरूप है तथा परचतुष्टय अर्थात् परद्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से असत् स्वरूप है, यही नय है। इसी से प्रमाण को सकलग्राही और नय को विकलग्राही कहा है। यदि एक नय दूसरे नय की अपेक्षा को गौण रखकर वस्तु को जाने तभी वह नय सुनय कहलाएगा और तभी वस्तु धर्म की ठीक प्रतीति होगी। किन्तु यदि कोई नय वस्तु को केवल सत् स्वरूप ही सिद्ध करना चाहता है और उसके असत् स्वरूप का निराकरण करता है तो यह नय सुनय न होकर दुर्नय कहा जाएगा। अतः वस्तु के इतर धर्मों का निषेध न करके उसके किसी एक धर्म की मुख्यता से और उसी समय उसके अन्य धर्मों की गौणता से उसके स्वरूप को जानने से ही उसकी ठीक प्रतीति होती है। आचार्य देवसेन स्वामी ने भी एक उद्धरण द्वारा नय की उपयोगिता सिद्ध करते हुए कहा है-'प्रमाण से नाना-स्वभाव वाले द्रव्य को जानकर सापेक्ष-सिद्धि के लिए उसको कथंचित् नयों से मिश्रित अर्थात् युक्त करना चाहिए। 206 जगत् के पदार्थों का जैसा स्वरूप है वैसा ही ज्ञान से जाना जाता है और वैसा ही लोक में माना जाता है। नय भी उसे वैसा ही जानते हैं। अन्तर केवल इतना है कि प्रमाण से वस्तु के सब धर्मों को ग्रहण करके ज्ञाता पुरुष अपने अभिप्राय के अनुसार उनमें से किसी एक धर्म की मुख्यता से वस्तु का कथन करता है, यही नय है। इसी से ज्ञाता के अभिप्राय को भी नय कहा है। जो नाना स्वभावों को छोड़कर वस्तु के एक स्वभाव का कथन करता है वह नय है और जो वस्तु का प्रतिपक्षी धर्म से निरपेक्ष एकान्त रूप से कथन करता है वह दुर्नय है। दुर्नय से वस्तु स्वरूप की सिद्धि नहीं हो सकती; क्योंकि वस्तु सर्वथा एक रूप ही नहीं है। अतः जो प्रतिपक्षी धर्मों की अपेक्षा रखते हुए वस्तु के एक धर्म का कथन करता है वही सुनय तत्त्वाधिगम के उपाय :: 141 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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