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________________ कहा है-प्रमाण 'सत्' अर्थात् वस्तु सत् स्वरूप है इस प्रकार से वस्तु-स्वरूप का विवेचन करता है और नय 'स्यात् सत्' 'वस्तु कथंचित् अर्थात् किसी अपेक्षा से सत् है' इस प्रकार सापेक्ष रूप से वस्तु-स्वरूप का निरूपण करता है जबकि दुर्नय 'सत् एव' ‘पदार्थ सत् ही है' ऐसा ‘एवकार' (ही) द्वारा अवधारण कर उसके अन्य धर्मों का निराकरण या निषेध करता है ।203 प्रमाण वस्तु को समग्र रूप से ग्रहण करता है और नय किसी वस्तु में अपने इष्ट-धर्म को सिद्ध करते हुए उसके अन्य धर्मों में उदासीन होकर उसका विवेचन करता है जबकि दुर्नय किसी वस्तु में अन्य धर्मों का निषेध करके अपने अभीष्ट एकान्त अस्तित्व को सिद्ध करने की चेष्टा करता है। जैसे—'अस्ति एव घट: ' 'यह घट ही है'। यहाँ 'एवकार' अन्य नास्तित्व आदि धर्मों का निषेध करता है। वस्तु में अभीष्ट धर्म की प्रधानता से अन्य धर्मों का निषेध या निराकरण करने के कारण दर्नय को मिथ्या कहा गया है। नय में दुर्नय की तरह एक धर्म के अतिरिक्त अन्य धर्मों का निषेध या निराकरण नहीं किया जाता है, इसलिए नय को दुर्नय न कहकर सम्यक् ही कहा जाता है। नय का सम्यक्पना यही है कि वह वस्तु के सभी सापेक्षिक धर्मों को लेकर ही वस्तु का विवेचन करता है। इसीलिए जैनदर्शन में नय को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है; क्योंकि वह समस्त विवादों को दूर कर निर्विवाद वस्तु-स्वरूप को सामने रखता है। नय को समझे बिना दुर्नय का परिज्ञान नहीं हो सकता है और न ही नय से दुर्नय का भेद किया जा सकता है। आचार्य वादिदेव सूरि ने नय और दुर्नय का प्रतिपादन किया है-श्रुतज्ञान प्रमाण से जाने हुए पदार्थ का एक अंश अन्य अंशों को गौण करके जिस अभिप्राय से जाना जाता है, वक्ता का वह अभिप्राय-विशेष नय कहलाता है और अपने अभीष्ट अंश (धर्म) के अतिरिक्त वस्तु के अन्य अंशों (धर्मों) का अपलाप या निषेध करने वाला नयाभास अर्थात् दुर्नय कहलाता है। _श्रुतज्ञान रूप प्रमाण अनन्त धर्मवाली वस्तु को ग्रहण करता है और नय उन अनन्त धर्मों में से किसी एक धर्म को जानता है। नय जब वस्तु के एक धर्म को जानता है तब शेष रहे हुए धर्म भी वस्तु में विद्यमान तो रहते ही हैं किन्तु उन्हें गौण कर दिया जाता है। इसप्रकार केवल एक धर्म को मुख्य करके उसे जानने वाला ज्ञान नय है। जबकि वस्तु के अनन्त अंशों (धर्मों) में से एक अंश को ग्रहण करके शेष समस्त अंशों का अभाव मानने वाला अथवा उनका निराकरण करने वाला नय ही नयाभास या दुर्नय है। नय एक अंश को ग्रहण करता है पर उस अंश के सहचर 140 :: जैनदर्शन में नयवाद Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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