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महान् तार्किक आचार्य सिद्धसेन का कथन है-'वे सभी नय मिथ्यादृष्टि हैं जो अपने ही पक्ष का आग्रह करते हैं, पर का निषेध करते हैं, किन्तु जब वे ही परस्पर-सापेक्ष और अन्योन्याश्रित होते हैं तब सम्यक्त्व के सद्भाव वाले होते हैं, सम्यग्दृष्टि होते हैं।' __जिस तरह अनेक लक्षण और गुणवाली वैडूर्य आदि मणियाँ बहुमूल्य होने पर भी अलग-अलग बिखरी हुई हों, एक सूत्र में पिरोई हुई न हों तो 'रत्नावली' या 'हार' का नाम नहीं पा सकतीं, उसी तरह सभी नय अपने-अपने पक्ष में अधिक निश्चित होने पर भी आपस में एक दूसरे के साथ निरपेक्ष होने से 'सम्यग्दर्शन' या सम्यक्त्वपने के व्यवहार को नहीं पा सकते और जिस प्रकार वे ही मणियाँ एक डोरे में पिरोई जाएँ तो 'रत्नावली' या 'रत्नहार' कहलाती हैं और अपना भिन्न-भिन्न नाम छोड़ देती हैं उसी तरह सभी नय यथोचित रूप से सुसंकलित होकर या परस्पर-सापेक्ष होकर सम्यक्पने को प्राप्त हो जाते हैं और वे सुनय कहलाते हैं ।
वे अन्त में कहते हैं-'जो वचन-विकल्प रूपी नय परस्पर सम्बद्ध होकर स्वविषय का प्रतिपादन करते हैं, वह उनकी स्वसमय प्रज्ञापना है अर्थात् जैन दृष्टि की देशना है तथा अन्य निरपेक्ष वृत्ति तीर्थंकर की आसादना है। 201
तात्पर्य यह है-निरपेक्ष नयों की देशना वस्तु का सम्पूर्ण स्वरूप प्रकाशित नहीं करती, अत: वह अधूरी और मिथ्या है। इससे विपरीत एक दूसरे की मर्यादा को स्वीकार करके प्रवृत्त होने वाले नयों की सापेक्ष दृष्टि वस्तु का सम्पूर्ण स्वरूप प्रकट करती है, अतः वह पूर्ण और यथार्थ है। ऐसी दृष्टि में से जो विचार या वाक्य फलित होते हैं वे ही जैन देशना हैं। जैसे-आत्मा के नित्यत्व के विषय में विचार किया जाय तो वह अपेक्षा विशेष से नित्य भी है और अनित्य भी है; मूर्तत्व के विषय में वह कथंचित् मूर्त है और कथंचित् अमूर्त है; शुद्धत्व के विषय में वह कथंचित् शुद्ध और कथंचित् अशुद्ध है; परिमाण के विषय में वह कथंचित् व्यापक
और कथंचित् अव्यापक है; संख्या के विषय में वह कथंचित् एक और कथंचित् अनेक है-ऐसे अनेक मुद्दों के विषय में वाक्य और विचार सुनय है। ___आचार्य कुन्दकुन्द ने इसी तत्त्व को बड़े मार्मिक ढंग से समझाया है'स्वसमयी व्यक्ति दोनों नयों के वक्तव्य को जानता तो है, पर किसी एक नय का तिरस्कार करके दूसरे नय के पक्ष को ग्रहण नहीं करता, वह एक नय को द्वितीय सापेक्ष रूप से ही ग्रहण करता है। 202
आचार्य हेमचन्द्र ने प्रमाण, नय और दुर्नय के विषय का विवेचन करते हुए
तत्त्वाधिगम के उपाय :: 139
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