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वाला प्रमाण है और उसके उन अनन्त धर्मों में से किसी एक धर्म का बोधक ज्ञाता का अभिप्राय या ज्ञान-विशेष नय है। यद्यपि अनेकान्तात्मक वस्तु के एक-एक अन्त अर्थात् धर्मों को विषय करने वाले अभिप्राय-विशेष प्रमाण की ही सन्तान हैं, पर इनमें यदि सुमेल, परस्पर प्रीति और सापेक्षता है तो ही ये सुनय हैं अन्यथा दुर्नय हैं। नय सदा सापेक्ष कथन करता है और दुर्नय निरपेक्ष। सुनय अनेकान्तात्मक वस्तु के किसी एक अंश को मुख्य भाव से ग्रहण करके भी अन्य अंशों का निराकरण नहीं करता, किन्तु उनकी ओर तटस्थ भाव रखता है और दुर्नय अन्य अंशों का निराकरण करता है, उनकी उपेक्षा करता है।
प्रमाण वस्तु के अनेक धर्मों का ग्राहक होता है और नय किसी एक धर्म का; किन्तु एक धर्म को ग्रहण करता हुआ भी नय दूसरे धर्मों का न निषेध करता है और न विधान ही। निषेध करने पर वह दुर्नय हो जाता है और विधान करने पर प्रमाण कोटि में परिगणित हो जाता है। वह धर्मान्तर सापेक्ष एक धर्म का ज्ञान कराता है और इतर धर्म निरपेक्ष एक ही धर्म का ज्ञान कराने पर वह दुर्नय कहा जाता है।
जैन न्याय के प्रतिष्ठापक, महान् दार्शनिक विद्वान् अकलंकदेव ने एक श्लोक उद्धृत करते हुए प्रमाण, नय और दुर्नय का तर्क सम्मत विवेचन किया है। श्लोक का अर्थ है
___ 'अनेक धर्मात्मक पदार्थ के ज्ञान को प्रमाण और उसके एक अंश से धर्मान्तर सापेक्ष ज्ञान को नय कहते हैं तथा धर्मान्तर का निराकरण करने वाला एक अंश का ज्ञान दुर्नय है।'
नय सापेक्ष होता है और दुर्नय निरपेक्ष । अर्थात्-वस्तु का सापेक्ष कथन करना सुनय और निरपेक्ष कथन करना दुर्नय है तथा वस्तु के पूर्ण धर्मों को ग्रहण करना प्रमाण है।
इसी का विश्लेषण करते हुए आचार्य विद्यानन्द ने कहा है___ 'प्रमाण तत् और अतत् सभी अंशों से परिपूर्ण वस्तु को जानता है, नय से केवल तत् (विवक्षित) अंश की प्रतिपत्ति या ज्ञान होता है और दुर्नय अपने अविषय अंशों का निराकरण करता है। प्रमाण वस्तु के सभी धर्मों को ग्रहण करता है, नय धर्मान्तरों की उपेक्षा करता है जब कि दुर्नय धर्मान्तरों की हानि अर्थात् निराकरण करने की दुष्टता करता है।'197
निरपेक्ष नय मिथ्या होते हैं और वे ही दुर्नय कहलाते हैं। सापेक्ष नय सम्यक् होते हैं और वे ही कार्यकारी होते हैं। 98
138 :: जैनदर्शन में नयवाद
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