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________________ काल और पर-भाव की अपेक्षा से असत् है । वस्तु इस चतुष्टय से गुम्फित एकरस रूप है। कहने मात्र के लिए ही ये चार हैं, वास्तव में एक ही है; क्योंकि तीन काल में भी कभी ये बिखर कर वस्तु से पृथक् नहीं हो सकते या यों कह लीजिए कि इनसे शून्य वस्तु 'असत् ' है । यहाँ यह भी विचारणीय है कि यदि वस्तु को स्वद्रव्य की तरह पर- द्रव्य से भी सत् माना जाय तो द्रव्यों के प्रति नियम में विरोध आता है तथा पर-द्रव्य की तरह यदि स्वद्रव्य से भी वस्तु को असत् माना जाय तो समस्त द्रव्यों के निराश्रय होने का प्रसंग आता है । वस्तु को स्वक्षेत्र की तरह परक्षेत्र से भी सत् मानने पर किसी वस्तु का कोई प्रतिनियत क्षेत्र व्यवस्थित नहीं हो सकता और पर - क्षेत्र की तरह स्व- क्षेत्र से भी वस्तु को असत् मानने पर वस्तु की नि:क्षेत्रता की आपत्ति आती है अर्थात् उसका कोई क्षेत्र ही नहीं रहेगा । यदि वस्तु को स्वकाल की तरह परकाल में भी सद्रूप माना जाय तो वस्तु का कोई सुनिश्चित काल ही नहीं हो सकेगा तथा परकाल की तरह स्वकाल से भी यदि वस्तु को असत् माना जाय तो समस्त काल में वस्तु के न होने का प्रसंग आएगा और ऐसी स्थिति में किसी वस्तु का कोई सुनिश्चित स्वरूप व्यवस्थित न हो सकने से इष्ट और अनिष्ट तत्त्व की व्यवस्था ही नहीं बन सकेगी। 1 सामान्य रूप से जीव का स्वरूप उपयोग 15 ( आत्मा के चैतन्य गुण से सम्बन्ध रखने वाला परिणाम विशेष जानना - देखना आदि) है। उपयोग से भिन्न अनुपयोग जीव का पर - रूप है । अतः जीव स्वरूप ( उपयोग ) से सत् है । और पर - रूप (अनुपयोग) से असत् है । इसी तरह प्रत्येक द्रव्य और पर्याय का जो स्वरूप है वह उसी की अपेक्षा सत् है, उससे भिन्न जो पर - रूप है उसकी अपेक्षा वह असत् है। (3) सुनय एवं दुर्नय - नय जब अनेक धर्मात्मक वस्तु के विवक्षित धर्म को ग्रहण करके भी इतर धर्मों का निराकरण नहीं करता है, उनके प्रति तटस्थ रहता है अथवा उन्हें मुख्य या गौण करके वस्तु स्वरूप का प्रतिपादन करता है तब सुनय कहलाता है और जब वही किसी एक धर्म का आग्रह करके दूसरे धर्मों का निराकरण करने लगता है तब वह दुर्नय हो जाता है। यह पहले कहा जा चुका है कि जैनदर्शन के अनुसार जगत् की प्रत्येक वस्तु अस्तित्व-नास्तित्व, नित्यत्व - अनित्यत्व, एकत्व - अनेकत्व, भेदत्व - अभेदत्व, सामान्यविशेष आदि अनन्त धर्मात्मक है या यों कहिए कि अनन्त धर्मों का पिण्ड ही वस्तु है; क्योंकि वस्तु में इन अनन्त धर्मों का अस्तित्व माने बिना उसके अस्तित्व की कल्पना ही सम्भव नहीं है। उस अनन्त धर्मात्मक वस्तु के पूर्ण रूप को ग्रहण करने तत्त्वाधिगम के उपाय :: 137 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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