________________
है तो नय शाखा-समूह, प्रमाण यदि व्यापक है तो नय व्याप्य, प्रमाण नय में समाविष्ट नहीं है बल्कि नय ही प्रमाण में समाविष्ट है। प्रमाण का सम्बन्ध पाँचों ज्ञानों से है जबकि नय का सम्बन्ध केवल श्रुतज्ञान से ही है। अर्थात् पाँचों ज्ञानों को प्रमाण कहते हैं जबकि नय श्रुतज्ञान रूप प्रमाण का अंश विशेष है।
ऊपर स्वचतुष्टय (अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव) तथा परचतुष्टय (पर के द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव) का उल्लेख किया गया है अतः उनका समझना उपयोगी होने से यहाँ उनका विवेचन किया जाता है__ प्रत्येक वस्तु का अपना स्वरूप होता है जो अन्य वस्तुओं के स्वरूप से भिन्न होता है। इसी प्रकार उसका अपना क्षेत्र, अपना काल और अपना भाव' अर्थात् स्वभाव भी होता है। इन्हीं चारों को स्वरूपादि-चतुष्टय कहते हैं। अपने स्वरूपादि से भिन्न जो पर पदार्थों के स्वरूपादि-चतुष्टय हैं वे पररूपादि-चतुष्टय कहलाते हैं। ___ द्रव्य का अर्थ होता है, गुण और पर्यायों का समूह अथवा गुण-पर्यायों का अधिष्ठान द्रव्य कहलाता है। अपने गुण और पर्यायों के समूह की अपेक्षा किसी वस्तु का होना ही द्रव्य की अपेक्षा सत् या अस्तित्व कहलाता है। जैसे-'घट' घट रूप से सत् (भाव रूप) है और पट रूप से असत् (अभावरूप) है अर्थात् घड़ा, घड़ा ही है, कपड़ा नहीं है। अतः कहना चाहिए, हर एक वस्तु स्वद्रव्य की अपेक्षा से है और पर द्रव्य की अपेक्षा से नहीं है।
द्रव्य के अंशों को क्षेत्र कहते है अथवा द्रव्य का संस्थान या आकृति उसका स्वक्षेत्र है। घड़े के अंश या अवयव या संस्थान या आकृति ही घड़े का क्षेत्र है। घड़े का क्षेत्र वह नहीं है, जहाँ घड़ा रखा है, वह तो उसका व्यावहारिक क्षेत्र या स्थान है। इस अवयव रूप क्षेत्र की अपेक्षा होना ही घड़े का स्वक्षेत्र की अपेक्षा होना है।
वस्तु के परिणमन को काल कहते हैं अथवा उसकी पर्यायें ही उसका स्वकाल है। प्रत्येक वस्तु का परिणमन पृथक्-पृथक् है। घड़े का अपने परिणमन की अपेक्षा होना ही स्वकाल की अपेक्षा होना कहलाता है; क्योंकि यही उसका स्वकाल है। घंटा, घड़ी, मिनट, सेकेंड आदि वस्तु का स्वकाल नहीं है, वह तो व्यावहारिक काल है।
वस्तु के गुण को भाव कहते हैं। प्रत्येक वस्तु का गुण या स्वभाव अलगअलग होता है। घड़ा अपने ही स्वभाव की अपेक्षा से है। वह अन्य पदार्थों के स्वभाव की अपेक्षा से कैसे हो सकता है?
___ इस प्रकार प्रत्येक वस्तु स्वचतुष्टय अर्थात् स्वद्रव्य, स्व-क्षेत्र, स्व-काल और स्व-भाव की अपेक्षा से सत् है और पर-चतुष्टय अर्थात् पर-द्रव्य, पर-क्षेत्र, पर
है।
136 :: जैनदर्शन में नयवाद
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org