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वक्ता पुन: कहता है— ‘स्यात् नास्ति' तब शिष्य समझता है वस्तु परचतुष्टय (पर द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव ) की अपेक्षा से 'नास्तिरूप' है। 'स्यात्' शब्द बताता है कि वस्तु सर्वथा 'नास्ति रूप' नहीं है, उसमें 'अस्तिपना' भी है। शिष्य को दृढ़ करने के लिए वक्ता पुन: कहता है, 'स्यात् अस्ति नास्ति' अर्थात् – वस्तु में किसी अपेक्षा से दोनों ही धर्म हैं, 'अस्ति' भी है और 'नास्ति' भी है। वस्तु में ये दोनों धर्म एक ही काल में रहते तो अवश्य हैं किन्तु वचन में ऐसी शक्ति नहीं है जिससे वस्तु के ये दोनों धर्म एक ही काल में, एक ही साथ कहे जा सकें। इसलिए वक्ता फिर कहता है—'स्यात् अवक्तव्य' अर्थात् किसी अपेक्षा से वस्तु अवक्तव्य भी है। वक्ता शिष्य को और दृढ़ करने के लिए अवक्तव्य के भी तीन भेद करके समझाता है - ' स्यात् अस्ति अवक्तव्य', 'स्यात् नास्ति अवक्तव्य', 'स्यात् अस्ति - नास्ति अवक्तव्य ।' यद्यपि एक समय में एक ही साथ इन तीनों धर्मों को कहने की शक्ति वचन में न होने से वस्तु अवक्तव्य है तथापि वस्तु 'अस्तिस्वभाव रूप' अवश्य है या ‘नास्ति स्वभाव रूप' अवश्य है या 'अस्ति नास्तिस्वभाव रूप' अवश्य है । इसी को स्याद्वाद नय या सप्तभंगी नय कहते हैं। इसप्रकार नय वस्तु के एक - एक धर्म का अलग-अलग करकें कथन करता है। नय वह ज्ञान प्रकार है जिसके द्वारा वस्तु के एक-एक धर्म को अलग-अलग दृष्टिकोण या अपेक्षा से समझाया जा सके। इस प्रकार नयों के द्वारा जब शिष्य वस्तु स्वरूप को भलीभाँति समझ जाता है तब उसका ज्ञान प्रमाण रूप हो जाता है । इतना समझने के बाद वह शिष्य पदार्थ में 'अस्तित्व' तथा ‘नास्तित्व' - ये दोनों धर्म एक ही साथ, एक ही काल में विद्यमान रहते हैं, ऐसा यथार्थ ज्ञान प्राप्त कर लेता है ।
में
उक्त प्रमाण और नय के भेद विषयक कथन का निष्कर्ष यह है कि प्रमाण नय नहीं है और नय प्रमाण नहीं है, किन्तु प्रमाण से जानी गयी वस्तु के एकदेश वस्तुत्व की विवक्षा का नाम नय है, दूसरी बात यह भी है कि नय प्रमाण से सर्वथा भिन्न भी नहीं है और अभिन्न भी नहीं है; क्योंकि प्रमाण का अर्थ है, जिस ज्ञान से वस्तु तत्त्व का निश्चय किया जाय अर्थात् सर्वांशग्राही बोध को प्रमाण कहते है और नय का अर्थ है, जिस ज्ञान के द्वारा अनन्त धर्मों में से किसी विवक्षित एक • धर्म का निश्चय किया जाय अर्थात् अनेक दृष्टिकोणों से परिष्कृत वस्तु तत्त्व के एकांशग्राही ज्ञान को नय कहते हैं ।
अन्त में संक्षेप करते हुए प्रमाण और नय के पारस्परिक सम्बन्ध और भेद के विषय में यही कहा जा सकता है कि प्रमाण यदि अंग है तो नय उपांग, प्रमाण यदि अंशी है तो नय अंश, प्रमाण यदि समुद्र है तो नय तरंग-निकर, प्रमाण यदि सिन्धु है तो नय उसका बिन्दु, प्रमाण यदि सूर्य है तो नय रश्मि - जाल, प्रमाण यदि वृक्ष
तत्त्वाधिगम के उपाय :: 135
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