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होते; क्योंकि ऐसा होने पर ऊपर केवल विधि - पक्ष में और केवल निषेध - पक्ष में कहे गये दोनों दोषों का प्रसंग आता है । अतः विधि प्रतिषेधात्मक वस्तु प्रमाण का विषय है। इसलिए प्रमाण का विषय एकान्त नहीं है और नय का विषय अनेकान्त नहीं है।
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धवला टीका में भी कहा गया है- 'प्रमाण ज्ञान समग्र वस्तु को विषय करता है और वस्तु विधि - प्रतिषेधात्मक है । वस्तु न केवल विधि रूप है और न केवल प्रतिषेध रूप । अतएव केवल विधि को विषय करने वाला और केवल प्रतिषेध को विषय करने वाला ज्ञान प्रमाण नहीं हो सकता; क्योंकि विषय के अभाव में विषयी का सद्भाव मानने में विरोध आता है। इसी प्रकार विधि - प्रतिषेधात्मक वस्तु को विषय करने वाला ज्ञान भी नय नहीं; क्योंकि विधि प्रतिषेधात्मक वस्तु अनेकान्त रूप होती है, इसलिए वह प्रमाण का विषय है, नय का नहीं और नय अनेकान्त रूप नहीं है। 193
इसी विषय को आचार्य समन्तभद्र ने युक्ति-संगत ढंग से कहा है- 'प्रतिषेध रूप धर्म के साथ तादात्म्य को प्राप्त हुआ विधि अर्थात् विधि-निषेधात्मक पदार्थ प्रमाण का विषय है, अतः वह प्रमाण है और इन विधि-निषेध रूप धर्मों में से किसी एक को वक्ता के अभिप्राय से मुख्य करके और दूसरे को गौण करके मुख्य धर्म के नियमन करने में जो हेतु है, वह नय है। नय किसी एक धर्म को मुख्य करके और उसी समय अन्य धर्म को गौण करके वस्तु के एक देश या स्वभाव का कथन करता है। वह नय विधि-निषेध रूप दोनों धर्मों में से किसी एक को मुख्य करके बताने के नियम का साधक है। इसके विषय का दृष्टान्त द्वारा समर्थन होता है।'
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जगत् का प्रत्येक पदार्थ विधि-निषेध रूप या अस्ति - नास्ति रूप है । कोई भी पदार्थ कभी भी इन दोनों धर्मों से शून्य नहीं हो सकता है। जहाँ स्वचतुष्टय अर्थात् अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से वस्तु का अस्तित्व है, वहाँ परचतुष्टय अर्थात् पर के द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से वस्तु का नास्तित्व भी है। इन दोनों विरोधी धर्मों को एक साथ बतलाने वाला प्रमाण है और दोनों को अलग-अलग कभी मुख्य और कभी गौण करके बतलाने वाला नय है । नय जब वस्तु के किसी एक धर्म को मुख्यता से बताता है तब दूसरे को गौण कर देता है । 'सुनने वाला शिष्य वस्तुस्वरूप को ठीक प्रकार से समझ जाए' इसलिए वक्ता वस्तु के धर्मों को एक-एक करके समझाता है। जैसे वक्ता कहता है- ' स्यात् अस्ति' तब शिष्य समझता है कि 'वस्तु में किसी अपेक्षा से अस्तिपना है अर्थात् स्वचतुष्टय (स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव) की अपेक्षा से वस्तु में 'अस्तिपना' है। यहाँ ' स्यात् ' पद का अर्थ 'कथंचित्' है, जिसका अर्थ होता है, वस्तु में 'अस्ति' के अतिरिक्त अन्य धर्म भी हैं। जब
134 :: जैनदर्शन में नयवाद
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