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________________ दूसरे को गौण करके वस्तु स्वरूप का प्रतिपादन करता है जबकि प्रमाण अनन्त धर्मों से विशिष्ट वस्तु का प्रतिपादन करता है। प्रमाण और नय के भेद को स्पष्ट करते हुए श्री राजमल्ल ने भी कहा है 'नय भी ज्ञान-विशेष है और प्रमाण भी ज्ञान-विशेष है, किन्तु दोनों में विषय-विशेष की अपेक्षा से भेद है, वस्तुतः ज्ञान की अपेक्षा से दोनों में कोई भेद नहीं है। इस प्रकार प्रमाण और नय में विषय-विशेष का भेद है। द्रव्य के अनन्त गुणों में से कोई सा एक विवक्षित अंश नय का विषय है और वह अंश तथा अन्य सभी अंश अर्थात् अनन्तगुणात्मक समस्त ही वस्तु प्रमाण का विषय है। जैसे किसी ने कहा-'स्यादस्ति घटः' तो यह नय समर्थन करता है कि अपने स्वरूप चतुष्टय (द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव) की अपेक्षा से घट है और पर स्वरूप चतुष्टय की अपेक्षा से घट नहीं है। नय के विषय का दृष्टान्त द्वारा समर्थन करते हुए आचार्य समन्तभद्र ने कहा है-'वस्तु अनेक धर्मों से रहित नहीं है, वह अनेक धर्मात्मक है। उन धर्मों में से जो विवक्षित धर्म होता है अर्थात् वक्ता जिसको कहना चाहता है, वह धर्म मुख्य करके नय के द्वारा कहा जाता है तथा जो धर्म अविवक्षित है अर्थात् वक्ता जिसको प्रधान करके नहीं कहना चाहता है उसको गौण या अप्रधान कर दिया जाता है। जैसे-एक व्यक्ति एक ही समय में किसी का शत्रु होने से शत्रुपना व किसी का मित्र होने से मित्रपना व किसी का शत्रु या मित्र कोई न होने से उदासीनपना इत्यादि अनेक धर्मों को रखने वाला है। उनमें से किसी एक धर्म को एक समय में प्रयोजन वश कहा जाएगा-जैसे-अमुक व्यक्ति सोहन का शत्रु है, मोहन का मित्र है और हमारा न तो शत्रु है न मित्र। इस प्रकार जगत् का प्रत्येक पदार्थ दो परस्पर विरोधी धर्मों को एक साथ एक ही काल में रखता है तब ही वह कार्यकारी है, प्रयोजन की सिद्धि कर सकता है।'192 इस प्रकार नय विवक्षा-भेद से वस्तु के अनेक धर्मों को मुख्य-गौण करके उसका प्रतिपादन करता है जबकि प्रमाण अनेक धर्मात्मक वस्तु को अखण्ड रूप से 'एक साथ ग्रहण करता है। : : इसके अतिरिक्त प्रमाण केवल विधि (सत्) को नहीं जानता, क्योंकि यदि वह केवल विधि को ही जाने तो एक पदार्थ का दूसरे पदार्थ से भेद ग्रहण न करने पर घट के स्थान पर पट में भी प्रवृत्ति कर सकेगा और ऐसी स्थिति में जानना न जानने के समान ही हो जाएगा तथा प्रमाण केवल प्रतिषेध को भी ग्रहण नहीं करता; क्योंकि विधि को जाने बिना 'यह इससे भिन्न है' ऐसा ग्रहण नहीं किया जा सकता तथा प्रमाण में विधि और प्रतिषेध दोनों परस्पर में अलग-अलग भी प्रतिभासित नहीं तत्त्वाधिगम के उपाय :: 133 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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