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________________ देते हैं इसलिए भी नय प्रमाण नहीं है । ' $188 प्रमाण ज्ञान धर्मभेद से वस्तु को ग्रहण नहीं करता है, वह तो सभी धर्मों के. समुच्चय रूप से ही वस्तु को जानता है और नय-ज्ञान धर्मभेद से ही वस्तु को ग्रहण करता है। वह सभी धर्मों के समुच्चय रूप वस्तु को ग्रहण न करके केवल एक धर्म के द्वारा ही वस्तु को जानता है । यही कारण है कि प्रमाणज्ञान दृष्टि भेद से परे है और नयज्ञान जितने भी होते हैं वे सभी सापेक्ष होकर ही सम्यग्ज्ञान कहलाते है; क्योंकि नयज्ञान में धर्म, दृष्टि या भेद प्रधान है। इसीलिए सापेक्षता के बिना सभी नयज्ञान मिथ्या होते हैं। गुण या धर्म जहाँ किसी वस्तु की विशेषता को व्यक्त करता. है वहाँ उस वस्तु को उतना ही समझ लेना मिथ्या है; क्योंकि प्रत्येक वस्तु में व्यक्त या अव्यक्त अनन्तधर्म पाये जाते हैं और उन सबका समुच्चय ही वस्तु है। नयज्ञान और प्रमाणज्ञान ये दोनों यद्यपि ज्ञान सामान्य की अपेक्षा एक हैं फिर भी इनमें विशेष की अपेक्षा भेद है। नयज्ञान जहाँ जानने वाले के अभिप्राय से सम्बन्ध रखता है, वहाँ प्रमाणज्ञान जानने वाले का अभिप्राय विशेष न होकर ज्ञेय का प्रतिबिम्ब मात्र है। नयज्ञान में ज्ञाता के अभिप्रायानुसार वस्तु प्रतिबिम्बित होती है पर प्रमाणज्ञान में वस्तु जो कुछ है वह प्रतिबिम्बित होती है। इसीलिए प्रमाण सकलादेशी और नय विकलादेशी कहा जाता है । इस प्रकार नयज्ञान प्रमाण नहीं माना जा सकता है। फिर भी वह सम्यग्ज्ञान तो है ही । इस प्रकार प्रमाण और नय में भेद है। नय प्रमाण नहीं है इसका विवेचन प्रकारान्तर से आगे भी किया गया हैनय प्रमाण नहीं है; क्योंकि वह एकान्तरूप होता है और प्रमाण में अनेकान्त रूप के दर्शन होते हैं, इसलिए भी नय प्रमाण नहीं है। 189 इस विषय में आचार्य समन्तभद्र का कथन है- 'प्रमाण और नय से सिद्ध होने वाला अनेकान्त भी अनेकान्त रूप है । प्रमाण की अपेक्षा से वस्तु के सभी धर्मों को एक साथ जानने वाला वह अनेकान्त अर्थात् अनेक धर्म स्वरूप है और विवक्षित या अर्पित नय की अपेक्षा से वह अनेकान्त एकान्त स्वरूप है अर्थात् वस्तु के एक धर्म काही ज्ञान कराने वाला है। 190 प्रमाण और नय से अनेकान्त स्वरूप वस्तु की सिद्धि होती है । प्रमाण वस्तु सर्वधर्मों को विषय करने वाला है और नय उन धर्मों में से किसी एक धर्म को विषय करने वाला है । प्रमाण की अपेक्षा से अनेकान्त अनेकान्त स्वरूप है अर्थात् अनेक धर्म स्वरूप वस्तु अनेकधर्मस्वरूप ही दिखती है और वही अनेकधर्म स्वरूप वस्तु जब किसी विशेष नय की अपेक्षा से देखी जाती है तब किसी एक धर्म स्वरूप ही दिखती है, उस समय अन्य धर्म गौण होते है, अतः वह एकान्त - स्वरूप कही वस्तु के अनन्त धर्मों में से किसी एक को मुख्य करके और उसी समय 132 :: जैनदर्शन में नयवाद Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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