SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 127
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उपाय से एक ही शब्द एक साथ अनन्त धर्मों का अर्थात् सम्पूर्ण वस्तु का प्रतिपादक हो जाता है । इसी को सकलादेश कहते हैं । शब्द द्वारा साक्षात् रूप से प्रतिपादित धर्म से शेष धर्मों का अभेद काल आदि द्वारा होता है । काल आदि आठ हैं- 1. काल, 2. आत्मरूप 3. अर्थ, 4. सम्बन्ध, 5. उपकार, 6. गुणी - देश, 7. संसर्ग, 8. शब्द 1177 जैसे - मान लीजिए, हमें अस्तित्व धर्म से अन्य धर्मों का अभेद करना है तो वह इस प्रकार होगा - जीव में जिस काल में अस्तित्व धर्म है उसी काल में अन्य धर्म भी हैं, अतः काल की अपेक्षा अस्तित्व धर्म से अन्यधर्मों का अभेद है। इसी प्रकार शेष सात की अपेक्षा भी अभेद समझना चाहिए । इसी को अभेद की प्रधानता कहते हैं । द्रव्यार्थिक नय को मुख्य और पर्यायार्थिक नय को गौण करने से अभेद की प्रधानता होती है। जब पर्यायार्थिक नय मुख्य और द्रव्यार्थिक नय गौण होता है तब अनन्तगुण वास्तव में अभिन्न नहीं हो सकते, अतएव उन गुणों में अभेद का उपचार करना पड़ता है। इस प्रकार अभेद की प्रधानता और अभेद के उपचार से एक साथ अनन्त धर्मात्मक वस्तु का प्रतिपादन करने वाला वाक्य सकलादेश कहलाता है। तथा नय के विषयभूत वस्तुधर्म का काल आदि द्वारा भेद की प्रधानता अथवा भेद के उपचार से क्रम से प्रतिपादन करने वाला वाक्य विकलादेश कहलाता है। सकलादेश में द्रव्यार्थिक नय की प्रधानता के कारण वस्तु के अनन्त धर्मों का अभेद किया जाता है और विकलादेश में पर्यायार्थिक नय की प्रधानता के कारण इन धर्मों का भेद किया जाता है । यहाँ भी उक्त काल आदि आठ के आधार पर ही भेद किया जाता है। पर्यायार्थिक नय कहता है - एक ही काल में, एक ही वस्तु में नाना धर्मों की सत्ता स्वीकार की जाएगी तो वस्तु भी नाना रूप ही होगी - एक ही रूप नहीं । इसी प्रकार नानागुणों सम्बन्धी आत्मरूप भिन्न-भिन्न ही हो सकता है – एक नहीं । इसी प्रकार अन्य भेदों को भी समझना चाहिए । श्री यशोविजय गणी 178 ने जिन काल- आदि के आधार पर एक धर्म का अन्य धर्मों से अभेद या भेद किया जाता है, उनका विश्लेषण बड़े सुन्दर ढंग से किया है (1) 'कथंचित् जीवादि वस्तु है ही' यहाँ जिस काल में जीवादि में अस्तित्व है उसी काल में उनमें शेष अनन्त धर्म भी हैं, यह काल से अभेद वृत्ति है । (2) जीवादि का गुण होना जैसे अस्तित्व का आत्मस्वरूप है, उसीप्रकार अन्य अनन्त गुणों का भी यही आत्मरूप है, यह आत्मरूप से अभेद वृत्ति है। (3) जो द्रव्यरूप अर्थ अस्तित्व का आधार है वही अन्य धर्मों का भी तत्त्वाधिगम के उपाय :: 125 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy