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________________ विकलादेश रूप हैं। 172 तथा जिसप्रकार सुनय वाक्यों से अर्थात् अनेकान्त के अवबोधक वाक्यों से श्रोता को प्रमाण-ज्ञान ही उत्पन्न होता है, उसीप्रकार दुर्नयवाक्यों से अर्थात् एकान्त के अवबोधक वाक्यों से भी श्रोता को प्रमाण रूप ही ज्ञान होता है, क्योंकि इन सातों दुर्नयवाक्यों से एकान्त को विषय करने वाला बोध नहीं होता है। अर्थात् ये सातों वाक्य अर्थ का कथन एकान्त रूप ही करते हैं, तथापि उनसे जो ज्ञान होता है वह अनेकान्त रूप ही होता है। यह विकलादेश नयाधीन है अर्थात् नय के वशीभूत है या नय से उत्पन्न होता है। ठीक यही विवेचन आचार्य अकलंक, प्रभाचन्द्र74 आदि ने भी किया है। इन सबने प्रमाण सप्तभंगी को सकलादेश स्वभाववाला और नय-सप्तभंगी को विकलादेश स्वभाववाला कहा है। क्योंकि ये दोनों प्रकार के सप्तभंगी अर्थात् प्रमाण-सप्तभंगी और नय सप्तभंगी क्रम से प्रमाण और नय के अधीन होने के कारण सकलादेश और विकलादेश स्वभाववाले हैं। सकलादेश और विकलादेश के विषय में आचार्य विद्यानन्द ने भी कहा है 'अनन्त धर्मात्मक वस्तु को कालादि के द्वारा अभेद की प्रधानता से अथवा अभेद का उपचार करके एक साथ प्रतिपादन करने वाला वचन सकलादेश कहलाता है; क्योंकि वह प्रमाण के अधीन है, और वस्तु स्वरूप को भेद की प्रधानता से अथवा भेद के उपचार से क्रम से प्रतिपादन करने वाला वचन विकलादेश है, क्योंकि वह नय के अधीन है।' ____ श्री वादिदेव सूरि ने 'प्रमाण से जानी हुई अनन्त धर्मों वाली वस्तु को काल आदि के द्वारा अभेद की प्रधानता से अथवा अभेद के उपचार से एक साथ प्रतिपादन करने वाले वचन को सकलादेश और सकलादेश से विपरीत वाक्य को विकलादेश' कहा है। ____ 'वस्तु में अनन्त धर्म हैं,' यह बात प्रमाण से सिद्ध है। अतएव किसी भी एक वस्तु का पूर्ण रूपेण प्रतिपादन करने के लिए अनन्त शब्दों का प्रयोग करना चाहिए, क्योंकि एक शब्द एक ही धर्म का प्रतिपादन कर सकता है। मगर ऐसा करने से लोक व्यवहार नहीं चल सकता है। अतएव हम एक शब्द का प्रयोग करते हैं। वह एक शब्द मुख्य रूप से एक धर्म का प्रतिपादन करता है और शेष बचे हुए धर्मों को उस एक धर्म से अभिन्न मान लेते हैं। इस प्रकार एक शब्द से एक धर्म का प्रतिपादन हुआ और उससे अभिन्न होने के कारण शेष धर्मों का भी प्रतिपादन हो गया। इस 124 :: जैनदर्शन में नयवाद Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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