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________________ है। यह प्रमाण अनन्त धर्मवाली वस्तु को समग्रभाव से ग्रहण करता है। इसीलिए प्रमाण को सकलादेशी कहा गया है।62 किन्तु इस अनन्तधर्मवाली वस्तु के किसी एक धर्म की मुख्यता से वक्ता अपने अभिप्रायानुसार कथन करता है। जैसे, देवदत्त व्यक्ति किसी का पिता और किसी का पुत्र है, किसी का मामा और किसी कां भानजा है। इस प्रकार अपने नाना सम्बन्धियों की अपेक्षा से वह नाना सम्बन्ध वाला है, किन्तु उन नाना सम्बन्धों में से पुत्रत्व धर्म की विवक्षा से उसका पिता उसे पुत्र कहता है, पितत्व धर्म की विवक्षा से उसका पुत्र उसे पिता कहता है, मातुलत्व धर्म की अपेक्षा से उसका भानजा उसे मामा कहता है और भगिनेयत्व धर्म की विवक्षा से उसका मामा उसे भानजा कहता है। इस तरह विवक्षा भेद से जो वस्तु के एक धर्म का कथन किया जाता है, वह नय है। नय वस्तु के किसी एक विवक्षित धर्म का ग्राहक है अर्थात् उसका ज्ञान कराने वाला है। इसीलिए नय को विकलादेशी कहा गया है।163 समस्त लोकव्यवहार नयाधीन है; क्योंकि ज्ञाता पूर्ण वस्तु को जानकर भी अपने अभिप्राय के अनुसार उसका कथन करता है। इसी से ज्ञाता के अभिप्राय को नय कहते हैं ।164 और प्रमाण से गृहीत वस्तु के एक देश में वस्तु का निश्चय ही अभिप्राय है।65 नय ज्ञान ज्ञाता के अभिप्राय से सम्बन्ध रखता है। उसमें ज्ञाता के अभिप्रायानुसार वस्तु प्रतिबिम्बित होती है। अतः ज्ञाता का वह अभिप्रायविशेष नय है, जो प्रमाण के द्वारा जानी गयी वस्तु के एक देश को स्पर्श करता है। जो प्रमाण द्वारा निश्चित किये गये अनेक धर्मात्मक वस्तु के एक-एक अंग का ज्ञान मुख्यता से कराता है, वह नय है। नय वस्तु का सापेक्ष निरूपण करता है। इसी से नय सापेक्ष होने पर ही सम्यक् कहे जाते हैं; क्योंकि.प्रत्येक नय दृष्टिभेद से वस्तु के एक धर्म को ग्रहण करता है। अनन्त धर्मात्मक वस्तु के किसी एक धर्म की अपेक्षा से उसके अन्य धर्मों का निषेध न करते हुए, किन्तु उनको गौण करते हुए, उस वस्तु का विवेचन करना नय है। नय किसी वस्तु में अपने अपेक्षित धर्म को सिद्ध करते हुए अन्य धर्मों में उदासीन होकर उस वस्तु का विवेचन करता है। अत: अनेकान्तात्मक वस्तु का जिस धर्म की विवक्षा से वक्ता कथन करता है उसके उसी अभिप्राय को जानने वाले ज्ञान को नय कहा जाता है। वस्तु में अनन्त धर्म हैं, इसलिए उनके अवयव अनन्त तक हो सकते हैं और इसीलिए अवयव के ज्ञान रूप नय भी अनन्त हो सकते हैं। यह नय-व्यवस्था प्रमाण में ही होती है, अप्रमाण में नहीं, दूसरी बात यह है कि नय हमेशा प्रमाण का अंशरूप ही रहता है, पूर्ण रूप नहीं। यदि अप्रमाण में भी नय व्यवस्था मान ली जाये तो किसी भी वस्तु की सिद्धि नहीं हो सकती है और सर्वत्र अव्यवस्था या अनवस्था उपस्थित हो जाएगी। 120 :: जैनदर्शन में नयवाद Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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