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________________ (2) प्रमाण और नय में अन्तर-प्रमाण और नय दोनों ज्ञान ही हैं अर्थात् जितना भी समीचीन ज्ञान है, वह प्रमाण और नय दो भागों में बँटा हुआ है परन्तु उन दोनों में अन्तर यह है कि नय वस्तु के एक अंश का बोध कराता है और प्रमाण सर्व अंशों का। प्रमाण वस्तु के पूर्ण रूप को ग्रहण करता है और नय प्रमाण के द्वारा गृहीत वस्तु के एक अंश या धर्म का ज्ञान कराता है। आचार्य सिद्धसेन ने कहा है; अनेकान्तात्मक या अनेक धर्मात्मक वस्तु प्रमाण स्वरूप ज्ञान का विषय है और उन अनेक धर्मों में से किसी एक धर्म से विशिष्ट वस्तु नय का विषय माना गया है। 166 वस्तु में अनेक धर्म होते हैं, उनमें से जब किसी एक धर्म के द्वारा वस्तु का निश्चय किया जाय तब वह नय है। जैसे-नित्यानित्यात्मक वस्तु में नित्यत्व धर्म द्वारा 'आत्मा या प्रदीपादि वस्तुएँ नित्य हैं' ऐसा निश्चय करना नय है और अनेक धर्म द्वारा वस्तु का अनेक रूप से निश्चय किया जाय, जैसे नित्यत्व, अनित्यत्व आदि धर्मों द्वारा 'आत्मा या प्रदीपादि वस्तुएँ नित्यानित्यादि अनेक रूप हैं' ऐसा निश्चय करना प्रमाण है। अथवा दूसरे शब्दों में, यह समझना चाहिए कि 'नय' यह प्रमाण का एक अंशमात्र है और 'प्रमाण' यह अनेक नयों का समूह है; क्योंकि नय वस्तु को एक दृष्टि से ग्रहण करता है और प्रमाण उसे अनेक दृष्टियों से ग्रहण करता अंश-अंशी या धर्म-धर्मी का भेद किये बिना वस्तु का जो अखण्ड-ज्ञान होता है, वह प्रमाण-ज्ञान है तथा धर्म-धर्मी का भेद कर के किसी एक धर्म द्वारा वस्तु का जो ज्ञान होता है, वह नय ज्ञान है। मतिज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान-ये चार ज्ञान मूक हैं, अतः ये धर्म-धर्मी का भेद किये बिना वस्तु को जानते हैं इसलिए ये सब के सब प्रमाण ज्ञान हैं और श्रुतज्ञान अमूक है, अतएव विचारात्मक होने से उसमें कभी धर्मधर्मी का भेद किये बिना वस्तु प्रतिभासित होती है और कभी धर्म-धर्मी का भेद होकर वस्तु का बोध होता है। जब-जब धर्म-धर्मी का भेद किये बिना वस्तु प्रतिभासित होती है तब-तब वह श्रुतज्ञान प्रमाणज्ञान कहलाता है और जब-जब उसमें धर्म-धर्मी का भेद होकर किसी एक धर्म द्वारा वस्तु का ज्ञान होता है तबतब वह नय-ज्ञान कहलाता है इसी कारण से नयों को श्रुतज्ञान का भेद कहा गया है। उदाहरणार्थ-'जीव है', ऐसा मन का विकल्प प्रमाण ज्ञान है। यद्यपि जीव का व्युत्पत्त्यर्थ 'जो जीता है, वह जीव है 168- इस प्रकार होता है। तथापि जिस समय 'जीव' है, यह विकल्प मन में आया उस समय विकल्प द्वारा 'जो चेतनादि अनन्त गुणों का पिण्ड है' वह पदार्थ समझा गया, इसलिए यह ज्ञान 'प्रमाण-ज्ञान' तत्त्वाधिगम के उपाय :: 121 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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