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________________ से साध्य-विशेष की यथार्थता के प्राप्त कराने में समर्थ प्रयोग' को नय कहा है।155 ___ आचार्य अमृतचन्द्र ने प्रमाण के द्वारा अभिव्यक्त स्वरूप वाली अनन्तधर्मात्मक वस्तु के एक देश को जानने वाले ज्ञान' को नय कहा है।156 श्री माइल्ल धवल ने भी 'श्रुतज्ञान का आश्रय लिये हुए ज्ञानी का जो विकल्प वस्तु के एक अंश को ग्रहण करता है उसे नय कहा है।"57 यह नय श्रुतज्ञान का भेद है, इसलिए श्रुत के आधार से ही नय की प्रवृत्ति होती है। श्रुत प्रमाण होने से वस्तु के सभी धर्मों को जानने वाला है और नय वस्तु के अंश या धर्म को ग्रहण करने वाला है। इसी से नय विकल्प रूप है। इस प्रकार श्रुत-ज्ञान के द्वारा जाने गये अर्थ का अंश जिसके द्वारा जाना जाता है, उसे नय कहते आचार्य प्रभाचन्द्र ने भी 'नित्यानित्य, एकानेक, सदसदादि परस्पर विरोधी अनेक धर्मों वाली वस्तु के विरोधी धर्मों का निराकरण न करते हुए उस वस्तु के किसी एक अंश या धर्म को ग्रहण करने वाले ज्ञाता के अभिप्राय को नय कहा है। 158 ___ आचार्य यतिवृषभ ने 'सम्यग्ज्ञान को प्रमाण कहकर ज्ञाता के हृदय के अभिप्राय को नय कहा है। 15 ____ इसी प्रकार के अभिप्राय को अभिव्यक्त करते हुए श्री यशोविजयगणी ने भी 'श्रुतप्रमाण के द्वारा गृहीत अनन्त-धर्मात्मक वस्तु के एक देश या धर्म को ग्रहण करने वाले किन्तु उस गृहीत धर्म से इतर धर्मों का निषेध न करने वाले अभिप्राय-विशेष को नय कहा है'।160 - उक्त सभी आचार्यों की नयविषयक परिभाषाओं के कथन का निष्कर्ष यह है कि जैनदर्शन के अनुसार प्रत्येक वस्तु परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले सत्असत्, नित्य-अनित्य, एक-अनेक आदि धर्म स्वरूप है, अतः वह अनेकान्तात्मक या अनेक धर्मात्मक कही जाती है और इसीलिए जैनदर्शन को भी अनेकान्तवादी दर्शन कहा जाता है। ... वस्तु न सर्वथा सत् ही है, न सर्वथा असत् ही, न सर्वथा नित्य ही है, न सर्वथा अनित्य ही, न सर्वथा एक ही है, न सर्वथा अनेक ही, न सर्वथा भेदरूप ही है, न सर्वथा अभेद रूप ही, न सर्वथा सामान्य रूप ही है, न सर्वथा विशेष रूप ही, किन्तु दृष्टि-भेद से या कथंचित् या किसी अपेक्षा से सत् है तो किसी अपेक्षा से असत्, किसी अपेक्षा से नित्य है तो किसी अपेक्षा से अनित्य, किसी अपेक्षा से सामान्य रूप है तो किसी अपेक्षा से विशेष रूप, किसी अपेक्षा से वाच्य है तो किसी अपेक्षा से अवाच्य। इस प्रकार परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले सत्-असत् आदि धर्मों का तादात्म्यरूप ही वस्तु है। यह अनेकान्तात्मक वस्तु ही प्रमाण का विषय तत्त्वाधिगम के उपाय :: 119 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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