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________________ आचार्य देवसेन स्वामी ने भी 'नय' की व्युत्पत्ति कर्तृवाच्य में की है 'जो नाना स्वभावों से हटाकर एक स्वभाव में वस्तु को ले जाता है, प्राप्त कराता है, उसे स्थापित कराता है या उसका ज्ञान कराता है, उसे नय कहते हैं। 'अर्थात् अनेक गुणपर्यायात्मक द्रव्य का किसी एक धर्म की मुख्यता से निश्चय कराने वाले ज्ञान को नय कहते हैं। 147 इसी प्रकार अन्य आचार्यों ने भी 'नय' शब्द की कर्तृवाच्यपरक अनेक व्युत्पत्तियाँ की हैं। आचार्य विद्यानन्द स्वामी ने 'नय' शब्द की कर्मवाच्यपरक व्युत्पत्ति करते हुए कहा है; जो श्रुतप्रमाण द्वारा जाने गये अर्थ के किसी एक अंश या धर्म का कथन करता है, वह नय है । 148 इसी प्रकार श्री मल्लिषेण सूरि 149 और वादिदेव सूरि 150 ने भी कर्मवाच्य परक व्युत्पत्तियाँ की हैं। श्रुतज्ञान के द्वारा जाने हुए पदार्थ का एक धर्म, अन्य धर्मों को गौण करके जिस अभिप्राय से जाना जाता है, वक्ता का वह अभिप्राय नय कहलाता है । अर्थात् श्रुतज्ञान रूप प्रमाण अनन्त धर्मवाली वस्तु को ग्रहण करता है। उन अनन्त धर्मों में से किसी एक धर्म को जानने वाला ज्ञान नय कहलाता है। नय जब वस्तु के एक धर्म को जानता है तब वस्तु में रहे हुए शेष धर्मों को गौण कर देता है । इस प्रकार केवल एक धर्म को मुख्य करके उसे जानने वाला ज्ञान नय है । आचार्य समन्तभद्र ने श्रुतज्ञान का 'स्याद्वाद' शब्द से निर्देश करते हुए स्याद्वाद अर्थात् श्रुतज्ञान द्वारा गृहीत अनेकान्तात्मक पदार्थ के धर्मों का अलग-अलग कथन करने वाले ज्ञान को नय कहा है। 151 श्रुतप्रमाण के विकल्प, भेद या अंश को भी नय कहा गया है; क्योंकि ज्ञा में ही नय रूप अंश या भेद होते हैं। 152 आचार्य अकलंक ने नय-सामान्य का लक्षण करते हुए कहा है- 'प्रमाण से गृहीत अस्तित्व, नास्तित्व, नित्यत्व, अनित्यत्व आदि अनन्तधर्मात्मक जीवादि पदार्थों के जो विशेष धर्म हैं, उनका निर्दोष कथन करना नय कहलाता है।' $153 यह नय प्रमाण-सापेक्ष होता है, इसीलिए आचार्य विद्यानन्द ने प्रमाण के विषयभूत 'स्व' और 'पर' यानि पदार्थ के एक देश या अंश का जिसके द्वारा निर्णय किया जावे उसे नय कहा है । तात्पर्य यह है कि प्रमाण से जानी गयी वस्तु के एक देश में वस्तुत्व की विवक्षा का नाम नय है। प्रमाण से गृहीत वस्तु में जो एकान्त रूप व्यवहार होता है वह नयमूलक है । अतः समस्त व्यवहार नय के आधीन है। आचार्य पूज्यपाद ने 'अनेकधर्मात्मक वस्तु में विरोध के बिना हेतु की मुख्यता 118 :: जैनदर्शन में नयवाद Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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