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भी सर्वज्ञ नहीं हो सकता। किन्तु उनकी यह मान्यता ठीक नहीं है; क्योंकि आप्तोक्त होने से ही कोई वचन प्रमाण हो सकता है, अन्यथा नहीं।
वैशैषिक और बौद्ध दर्शन आगम ज्ञान या शाब्द-प्रमाण को भी अनुमान का ही रूप मानते हैं। जैनदर्शन को यह बात मान्य नहीं। क्योंकि पूर्व-अभ्यास की स्थिति में शब्द-ज्ञान व्याप्ति निरपेक्ष होता है। एक व्यक्ति खोटे-खरे सिक्के को जानने वाला है, वह उसे देखते ही पहचान लेता है। उसे ऊहापोह की आवश्यकता नहीं होती। यही बात शब्दज्ञान के लिए है। शब्द सुनते ही सुनने वाला समझ जाता है। वह अनुमान नहीं होता। शब्द सुनने पर उसका अर्थबोध न हो, उसके लिए व्याप्ति का सहारा लेना पड़े तो वह अवश्य अनुमान होगा, शाब्द नहीं। प्रत्यक्ष के लिए भी यही बात है। प्रत्येक वस्तु के लिए 'यह अमुक होना चाहिए।' ऐसा विकल्प बने तब यह ज्ञान प्रत्यक्ष नहीं होगा, आगम व्याप्ति-निरपेक्ष होने के कारण अनुमान के अन्तर्गतं नहीं आता।
जैनदर्शन के अनुसार आगम स्वतः प्रमाण, पौरुषेय और आप्तप्रणीत होता है।
(1) नय का स्वरूप-जैनाचार्यों ने तत्त्वाधिगम के उपायों में प्रमाण के साथ नय का भी उल्लेख किया है; क्योंकि नय के द्वारा वस्तु के यथार्थ स्वरूप का परिज्ञान होता है। नय के स्वरूप को जानने के लिए उसके व्युत्पत्तिपरक लक्षणों को समझना अत्यावश्यक है, अतः सर्वप्रथम उसके व्युत्पत्तिपरक लक्षणों का विवेचन किया जाता है। ..'नय' शब्द ‘णी' प्रापणे धातु से कृदन्त का 'अच्' प्रत्यय लगाने पर सिद्ध होता है, जिसकी व्युत्पत्ति कर्तृ-वाच्य में 'नयति प्राप्नोति, जानाति वस्तु स्वरूपं यः स: नयः' इस रूप से और कर्म वाच्य में 'नीयते, गम्यते, परिच्छिद्यते, ज्ञायतेऽनेन
येन वा अर्थः सः नयः' इस रूप से की जाती है। ..आचार्य वीरसेन स्वामी ने 'नय' शब्द का कर्तृवाच्यपरक व्युत्पत्ति का उल्लेख
करते हुए उसका विश्लेषण किया है; अनेक गुण और पर्यायों सहित अथवा उनके द्वारा एक परिणाम से दूसरे परिणाम में, एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में और एक काल से दूसरे काल में अविनाशी स्वभाव रूप से रहने वाले द्रव्य को जो ले जाता है अर्थात् उसका ज्ञान कराता है, उसे नय कहते हैं ।146 नय किसी विवक्षित धर्म द्वारा ही द्रव्य का बोध कराता है। अथवा जो अनेक धर्मात्मक वस्तु के किसी एक धर्म का ज्ञान कराता है, वह नय है।
तत्त्वाधिगम के उपाय :: 117
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