SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 118
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इस प्रकार हेतु का पाँच रूप वाला लक्षण ठीक नहीं हैं। अतएव आचार्य विद्यानन्द ने आचार्य पात्रकेसरी के त्रैरूप्य के खण्डन की तरह नैयायिकों के उक्त पाँच रूप्य का खण्डन करते हुए कहा है-'जहाँ (कृतिकोदय आदि हेतुओं में) अन्यथानुपपन्नत्व या अविनाभाव है वहाँ पंच रूपों से क्या लाभ? पंचरूप न भी हों तो भी कोई हानि नहीं और जहाँ (मैत्री-तनयत्व आदि हेतुओं में) पंचरूप है और अन्यथानुपपन्नत्व नहीं है, वहाँ, पंच रूप मानने से क्या लाभ? वे व्यर्थ हैं। 42 इसी प्रकार इन त्रैरूप्य और पाँचरूप्य हेतु लक्षणों के अतिरिक्त भी कुछ दार्शनिक द्विलक्षण, चतुर्लक्षण और षड्लक्षण आदि हेतु-लक्षणों को स्वीकार करते हैं, तर्क ग्रन्थों में उल्लेख पाया जाता है। किन्तु हेतु-लक्षणों की ये मान्यताएँ ठीक नहीं है, इनका तर्कपूर्ण ढंग से सहज ही में निराकरण किया जा सकता है। (ङ) आगम प्रमाण-परोक्ष प्रमाण का अन्तिम भेद आगम प्रमाण है। जैन आगमिक परम्परा में इसका प्राचीन नाम 'श्रुत' है। अतः श्रुतज्ञान या शब्द ज्ञान को आगम कहते हैं। आप्तवचन या द्रव्य श्रुत को भी आगम कहा जाता है, किन्तु वास्तव में आगम वह ज्ञान है जो श्रोता या पाठक को आप्त की मौखिक या लिखित वाणी से होता है। जैनदर्शन के अनुसार आप्त के वचनादि के निमित्त से होने वाले पदार्थ ज्ञान को आगम कहते है। 43 कर्मों के विनाशक, वीतराग, सर्वज्ञ, हितोपदेशी आत्मा के वचनों से तथा हाथ की अंगुली आदि की संज्ञाओं, संकेतों आदि से होने वाले द्रव्य, गुण और पर्यायों के ज्ञान को आगम प्रमाण कहते हैं। व्यवहार में भी 'यो यत्रावंचक: सः तत्राप्तः' अर्थात् जो जहाँ अवंचक है, वह वहाँ आप्त है इस व्याख्यान के अनुसार अविसंवादी, अवंचक और प्रामाणिक पुरुष के वचनों को सुनकर जो अर्थबोध होता है, वह भी आगम की मर्यादा में आता है। इसीलिए आचार्य अकलंकदेव ने आप्त का व्यापक अर्थ करते हुए कहा है कि जो जिस विषय में अविसंवादक है, वह उस विषय में आप्त है, उससे भिन्न अनाप्त है। 44 आप्तता के लिए तद्विषयक ज्ञान और उस विषय में अविसंवादकता या अवचंकता का होना आवश्यक है। इसलिए व्यवहार में अवंचक आप्त या प्रामाणिक पुरुष के द्वारा किये गये कथन का ज्ञान भी आगम प्रमाण ही माना जाएगा। इसी दृष्टि से आप्त के दो भेद किये गये हैं-1. लौकिक आप्त और 2. लोकोत्तर आप्त। लोक व्यवहार में माता-पिता आदि प्रामाणिक पुरुष लौकिक आप्त हैं। और मोक्ष मार्ग के उपदेष्टा सर्वज्ञ तीर्थंकर, गणधर आदि प्रामाणिक होते हैं इसलिए वे लोकोत्तर आप्त हैं।45 इस प्रकार आप्त वचन को आगम कहा गया है। ___मीमांसा दर्शन सर्वज्ञ को नहीं मानता। उसके अनुसार कोई भी पुरुष, कभी 116 :: जैनदर्शन में नयवाद Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy