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________________ नियम के बिना न तो हेतु अबाधित विषय होता है और न असत्प्रतिपक्ष होता है। 'अबाधित' विषय का अर्थ होता है - हेतु का साध्य किसी प्रमाण से बाधित नहीं । जैसे - अग्नि ठण्डी होती है; क्योंकि द्रव्य है, जैसे जल । इस अनुमान में अग्नि का ठण्डापन साध्य है, किन्तु यह साध्य प्रत्यक्ष प्रमाण से बाधित है; क्योंकि प्रत्यक्ष से अग्नि उष्ण सिद्ध है। अतः यह बाधित विषय है; क्योंकि 'जो जो द्रव्य हो वह - वह ठण्डा हो' ऐसा कोई अविनाभाव नियम नहीं है । द्रव्य ठण्डे भी होते हैं और गरम भी होते हैं। अतः अविनाभाव के अभाव के बिना कोई हेतु बाधित विषय नहीं हो सकता । बाधित विषय और अविनाभाव का परस्पर में विरोध है । साध्य के सद्भाव में ही हेतु का पक्ष में रहना अविनाभाव है और साध्य के अभाव में हेतु का रहना बाधित विषय है । असत्प्रतिपक्ष का अर्थ है - जिसका कोई प्रतिपक्ष न हो । जैसे—किसी ने कहा- यह जगत् किसी बुद्धिमान का बनाया हुआ है; क्योंकि कार्य है। दूसरे ने कहा- यह जगत् किसी का बनाया हुआ नहीं हैं; क्योंकि उसका कोई कर्ता नहीं है। यह सत्प्रतिपक्ष है । अब यहाँ यह विचारणीय है कि असत्प्रतिपक्षता से तुल्य बलवाले प्रतिपक्ष का निषेध इष्ट है । अथवा अतुल्य बलवाले प्रतिपक्ष का निषेध इष्ट है ? यदि पक्ष और प्रतिपक्ष दोनों समान बलवाले हों तो उनमें बाध्यबाधक - भाव नहीं हो सकता; क्योंकि जो समान बल - वाले होते हैं उनमें बाध्य - . बाधक - भाव नहीं होता, जैसे समान बलशाली दो राजाओं में। यदि पक्ष और प्रतिपक्ष अतुल्य बलवाले हैं तो उनके अतुल्य बल होने का कारण क्या है - एक में पक्षधर्मता वगैरह का होना और एक में उनका न होना अथवा अनुमानबाधा ? प्रथम पक्ष ठीक नहीं है; क्योंकि पक्षधर्मता आदि दोनों अनुमानों में पायी जाती है । जैसे, एक ने कहा- 'यह मनुष्य मूर्ख है; क्योंकि अमुक - का पुत्र है ।' दूसरे ने कहा'यह मनुष्य मूर्ख नहीं है; क्योंकि शास्त्र का व्याख्यान करता है।' इन दोनों अनुमानों में पक्षधर्मता आदि पाई जाती है। दूसरा पक्ष भी ठीक नहीं है- क्योंकि जब दोनों अनुमानों में पक्षधर्मता आदि पाई जाती है तो उनमें से एक बाधित और एक बाधक नहीं हो सकता, अन्यथा दोनों में से कोई भी बाध्य और कोई भी बाधक हो जाएगा तथा अन्योन्याश्रय नाम का दोष भी आता है- क्योंकि जब दोनों अनुमान अतुल्य बल सिद्ध हों तो अनुमानबाधा आये और जब अनुमान बाधा हो तो अतुल्यबलत्व सिद्ध हो। अतः हेतु का लक्षण अविनाभाव नियम निश्चय ही मानना चाहिए । जैनदर्शन में हेतु का एक रूप ही माना है और वह है अविनाभाव नियम । उसका कहना है कि जब तीन अथवा पाँच रूपों के नहीं होने पर भी कुछ हेतु गमक हो सकते हैं तो अविनाभाव नियम को ही हेतु का लक्षण मानना चाहिए, तीन या पाँच रूप तो अविनाभाव का ही विस्तार है । Jain Education International तत्त्वाधिगम के उपाय :: 115 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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