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________________ में अग्नि सिद्ध करता है अतः पर्वत पक्ष है । जहाँ साधन के सद्भाव से साध्य का सद्भाव दिखाया जाये उसे सपक्ष कहते हैं । जैसे- रसोईघर । जहाँ साध्य के अभाव में साधन का भी अभाव दिखाया जावे उसे विपक्ष कहते हैं, जैसे तालाब । ऊपर के अनुमान में धूमवत्व हेतु पर्वत (पक्ष) में रहता है, सपक्ष रसोईघर में भी रहता है, किन्तु विपक्ष तालाब में नहीं रहता । अतः वह निर्दोष हेतु है। हेतु के पक्ष में रहने से असिद्धता नाम का दोष नहीं रहता, सपक्ष में रहने से विरुद्धता नामका दोष नहीं रहता और विपक्ष में न रहने से अनैकान्तिक नाम का दोष नहीं रहता । यदि हेतु पक्ष में न रहे तो असिद्धता दोष दूर नहीं हो सकता, यदि हेतु सपक्ष में न रहे तो विरुद्धता दोष दूर नहीं हो सकता और यदि हेतु विपक्ष में भी रहता है तो अनैकान्तिक दोष दूर नहीं हो सकता । अतः 'त्रैरूप्य' ही हेतु का लक्षण ठीक है । किन्तु त्रैरूप्य हेतु के लक्षण का निराकरण करते हुए जैनदर्शन का मत है कि हेतु का लक्षण पक्षधर्मत्व आदि त्रैरूप्य नहीं है; क्योंकि त्रैरूप्य तो सदोष हेतुओं में भी पाया जाता है। जैसे यदि अग्नि का लक्षण 'सत्त्व' किया जाय तो वह ठीक नहीं है; क्योंकि सत् तो प्रत्येक पदार्थ होता है । इसीतरह पक्षधर्मत्व आदि त्रैरूप्य हेत्वाभास (सदोष हेतु) में भी रह जाता है, अतः त्रैरूप्य हेतु का लक्षण ठीक नहीं है, किन्तु 'साध्याविनाभाव' या अन्यथानुपपत्ति ही हेतु का समीचीन लक्षण है, बौद्धकल्पित त्रैरूप्य हेतु का लक्षण समीचीन नहीं है। इसी से आचार्य पात्र - केसरी ने उक्त त्रिलक्षण या त्रैरूप्य का कदर्थन (खण्डन) करने के लिए 'त्रिलक्षणकदर्थन' नाम का ग्रन्थ रचा था और इसी ग्रन्थ में उन्होंने कहा है कि 'जहाँ अन्यथानुपपत्ति या अविनाभाव है वहाँ त्रैरूप्य या त्रिरूपता से क्या प्रयोजन है ? अर्थात् त्रैरूप्य मानने से कोई लाभ नहीं और जहाँ अन्यथानुपपत्ति नहीं है वहाँ त्रिरूपता होने से भी क्या प्रयोजन है? अर्थात् उसका होना या न होना दोनों ही बराबर हैं। 140 नैयायिकों ने 141 बौद्धों के त्रैरूप्य की तरह पाँचरूप्य को हेतु का लक्षण माना है। वे पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्व, विपक्षव्यावृत्ति, अवाधित विषयत्व और असत्प्रतिपक्षत्व इस प्रकार पंच रूप वाला हेतु मानते हैं। उनका कहना है कि हेतु का पक्ष में रहना, समस्त सपक्षों में या किसी एक सपक्ष में रहना, किसी भी विपक्ष में नहीं पाया जाना, प्रत्यक्षादि से साध्य का बाधित नहीं होना और तुल्यबल वाले किसी प्रतिपक्षी हेतु का नहीं होना ये पाँच बातें प्रत्येक सद् हेतु के लिए नितान्त आवश्यक हैं। किन्तु जैनदर्शन के अनुसार हेतु का यह पाँचरूप्य लक्षण भी ठीक नहीं है। हेतु के इन पाँच लक्षणों में से पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्व और विपक्षव्यावृत्ति इन तीन का तो खण्डन ऊपर किया जा चुका है अब शेष हैं - अवाधितविषयत्व और असत्प्रतिपक्षत्व । इन दोनों का भी जैनदर्शन निराकरण करता है । अन्यथानुपपत्ति अथवा साध्याविनाभाव 114 :: जैनदर्शन में नयवाद Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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