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________________ धारणा रूप संस्कार के जागृत होने पर स्मृति-ज्ञान उत्पन्न होता है। यह ज्ञान किसी भी प्रमाण से पहले जाने हुए पदार्थ को ही जानता है और तत् (वह) इस प्रकार से उसका उल्लेख किया जाता है। मतलब यह है कि धारणा नाम के संस्कार से होने वाले और 'तत्' (वह) इस प्रकार से उल्लेखी ज्ञान को स्मृति कहते हैं जैसेवह देवदत्त ।।26 किसी व्यक्ति ने पहले देवदत्त नामक व्यक्ति को देखा और उसने उसके सम्बन्ध में धारणा कर ली। बाद में धारणा रूप संस्कार उबुद्ध हुआ और उसे स्मरण आया कि वह देवदत्त है। इस प्रकार पहले जानी हुई वस्तु के स्मरण को स्मृति कहते हैं। यद्यपि स्मरण का विषयभूत पदार्थ सामने नहीं है, फिर भी वह हमारे पूर्व अनुभव का विषय तो था ही और उस अनुभव का दृढ़ संस्कार हमें सादृश्य आदि अनेक निमित्तों से उस पदार्थ को मन में अंकित कर देता है। स्मरण के कारण ही समस्त लोक-व्यवहार चलता है। बौद्ध, मीमांसकादि दर्शन7 स्मृतिज्ञान को प्रमाण नहीं मानते। उनका कथन है कि गृहीतग्राही और अर्थ से अनुत्पन्न होने के कारण स्मृतिज्ञान प्रमाण नहीं है। पर उनकी यह मान्यता लोक-व्यवहार में बाधक है तथा स्मृति को प्रमाण माने बिना अनुमान प्रमाण भी नहीं बनेगा, क्योंकि वह व्याप्ति के स्मरण से उत्पन्न होता है। लेन-देन आदि के लौकिक व्यवहार भी स्मृति की प्रमाणता के बिना बिगड़ जाएँगे। अतः स्मृति की प्रमाणता स्वतः सिद्ध है। (ख) प्रत्यभिज्ञान-प्रत्यक्ष और स्मरण की सहायता से जो संकलनात्मक या जोड़रूप ज्ञान होता है उसे प्रत्यभिज्ञान कहते हैं ।128 जैसे—यह वही देवदत्त है, गवय गौ के समान होता है, भैंस गौ से विलक्षण होती है, यह उससे दूर है, इत्यादि जितने भी इस तरह के जोड़ रूप ज्ञान होते हैं वे सब प्रत्यभिज्ञान हैं। इन उदाहरणों का स्पष्टीकरण इस प्रकार है-सामने देवदत्त को देखकर पहले देखे हुए देवदत्त का स्मरण आने से यह ज्ञान होता है कि यह वही देवदत्त है। इस ज्ञान के होने में प्रत्यक्ष और स्मरण दोनों कारण होते हैं। तथा यह ज्ञान पहले देखे हुए देवदत्त में और वर्तमान में सामने विद्यमान देवदत्त में रहने वाले एकत्व को विषय करता है, इसलिए इसे एकत्व-प्रत्यभिज्ञान कहते हैं। किसी मनुष्य ने गवय नाम का पशु देखा, देखते ही उसे पहले देखी हुई गौ का स्मरण हुआ, इसके पश्चात् 'गौ के समान यह गवय है' ऐसा ज्ञान होता है। यह सादृश्य-प्रत्यभिज्ञान है। भैंस को देखकर गौ का स्मरण हो आने पर 'भैंस गौ से विलक्षण होती है' इस प्रकार से होने वाला यह ज्ञान वैसादृश्य-प्रत्यभिज्ञान कहा जाता है। इसी तरह प्रत्यक्ष और स्मरण के विषयभूत पदार्थों में परस्पर की अपेक्षा को लिये हुए जितने भी जोड़रूप ज्ञान होते हैं, जैसे यह उससे दूर है, यह उससे पास है, यह ऊँचा है या यह उससे तत्त्वाधिगम के उपाय :: 111 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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