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________________ नीचा है आदि, ये सब प्रत्यभिज्ञान हैं। __नैयायिक 29 सादृश्य को जानने वाले उपमान नामक प्रमाण को अलग मानते हैं; किन्तु उनकी यह मान्यता ठीक नहीं; क्योंकि ऐसा मानने पर तो एकता, विलक्षणता आदि को जानने वाले प्रमाण भी अलग-अलग मानने पड़ेंगे। कई लोग प्रत्यभिज्ञान को स्वतन्त्र प्रमाण नहीं मानते, पर एकता और सदृशता दूसरे किसी भी प्रमाण से नहीं जानी जाती, अतएव उसे पृथक् प्रमाण मानना ही चाहिए। (ग) तर्क-व्याप्ति के ज्ञान को तर्क कहते हैं। अर्थात् उपलम्भ और अनुपलम्भ से होने वाला, त्रिकालसम्बन्धी व्याप्ति को जानने वाला, 'यह उसके होने पर ही होता है, इसके अभाव में नहीं होता है' इत्यादि आकार वाला ज्ञान तर्क है। इसके चिन्ता, ऊहा, ऊहापोह आदि नामान्तर भी हैं। जैसे-अग्नि के होने पर धूम होता है अग्नि के अभाव में धूम नहीं होता।130 ____ जहाँ-जहाँ धूम होता है वहाँ-वहाँ अग्नि होती है। इस प्रकार के अविनाभाव सम्बन्ध को व्याप्ति कहते हैं। यह अविनाभाव सम्बन्ध त्रैकालिक होता है। जिस ज्ञान से इस सम्बन्ध का निर्णय होता है उसे तर्क कहते हैं। तर्कज्ञान उपलम्भ और अनुपलम्भ से उत्पन्न होता है। धूम और अग्नि को एक साथ देखना उपलम्भ है और अग्नि के अभाव में धूम का अभाव जानना अनुपलम्भ है। बार-बार उपलम्भ और बार-बार अनुपलम्भ होने से व्याप्ति का ज्ञान (तर्क) उत्पन्न हो जाता है। नैयायिकादि तर्क को भी प्रमाण नहीं मानते, किन्तु यदि तर्क ज्ञान को प्रमाण न माना जाये तो अनुमान प्रमाण की उत्पत्ति नहीं हो सकती। तर्क से धूम और अग्नि का अविनाभाव सम्बन्ध निश्चित हो जाने पर ही धूम से अग्नि का अनुमान किया जा सकता है। अतएव अनुमान को प्रमाण मानने वाले उक्त सभी दार्शनिकों को तर्क को भी प्रमाण मानना चाहिए। (घ) अनुमान-साधन से होने वाले साध्य के ज्ञान को अनुमान कहते हैं।132 साधन को लिंग और साध्य को लिंगी भी कहते हैं। अतः ऐसा भी कह सकते हैं कि लिंग से लिंगी के ज्ञान को अनुमान कहते हैं।133 लिंग अर्थात् चिह्न और लिंगी अर्थात् उस चिह्न वाला। जैसे-धूम से अग्नि को जान लेना अनुमान है। यहाँ धूम साधन अथवा लिंग है और अग्नि साध्य अथवा लिंगी है। अग्नि का चिह्न धूम है। कहीं धुआँ उठता दिखाई दे तो ग्रामीण लोग भी धुएँ को देख कर यह अनुमान कर लेते हैं कि वहाँ आग जल रही है। क्योंकि बिना आग के धुआँ नहीं उठ सकता। अतः ऐसे किसी अविनाभावी चिह्न को देखकर उस चिह्न वाले को जान लेना अनुमान है। लिंगग्रहण और व्याप्तिस्मरण के अनु-पश्चात् या पीछे होने वाला, मान-ज्ञान अनुमान कहलाता है। 112 :: जैनदर्शन में नयवाद Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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