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________________ यह ज्ञान आत्म-मात्र सापेक्ष होता है अर्थात् आत्मा की पूर्ण विशुद्धता होने पर यह ज्ञान प्रकट होता है। इसमें इन्द्रिय आदि की अपेक्षा नहीं होती है। यह पूर्णतः निर्मल और अतीन्द्रिय ज्ञान है। यह कर्मों के क्षय से होता है। इसको प्राप्त करने वाला महापुरुष केवली या सर्वज्ञ कहलाता है। जिस महापुरुष को सर्वज्ञता प्राप्त हो जाती है वह पूर्ण ज्ञाता हो जाता है। जैनदर्शन में सर्वज्ञता का विशिष्ट स्थान है, किन्तु चार्वाक और मीमांसक ये दो ही दर्शन ऐसे हैं जो सर्वज्ञता को स्वीकार नहीं करते, शेष सभी भारतीय दर्शन सर्वज्ञता को सप्रमाण स्वीकार करते हैं। जैन दार्शनिक और आगम ग्रन्थों में सर्वज्ञता का विस्तृत विवेचन किया गया है। सर्वप्रथम आचार्य कुन्दकुन्द ने प्रवचनसार के ज्ञानतत्त्व-प्रज्ञापनाधिकार में विश्लेषणात्मक ढंग से सर्वज्ञता की सिद्धि की है।27 इसके पश्चात् इनके उत्तरवर्ती महान् दार्शनिक आचार्य समन्तभद्र, सिद्धसेन, अकलंक, हरिभद्र, विद्यानन्दि आदि ने अनेक पुष्ट प्रमाणों और तर्कों के आधार पर सर्वज्ञसिद्धि की है। मीमांसा दर्शन के लिए तो सर्वज्ञता का विषय बहुत ही विवादास्पद रहा है। इस दर्शन ने सर्वज्ञता के निषेध में अनेक तर्क प्रस्तुत किये हैं; किन्तु जैन दार्शनिकों ने उन तर्कों का खण्डन बड़ी युक्तियों से करते हुए सर्वज्ञता की सिद्धि में अपनी विशेष प्रतिभा का परिचय दिया है। परोक्ष प्रमाण अस्पष्ट अथवा अविशद/22 ज्ञान को परोक्ष कहते हैं। जिस ज्ञान में इन्द्रिय, मन, प्रकाशादि पर साधनों की अपेक्षा रहती है वह परोक्ष कहलाता है। वास्तव में जो ज्ञान स्व-पर प्रकाशक या स्व-पर का निश्चायक होते हुए भी अस्पष्ट होता है उसे परोक्ष प्रमाण कहा गया है। जैनदर्शन में जिस इन्द्रिय-सापेक्ष ज्ञान को परोक्ष कहा गया है उस ज्ञान को जैनेतर दर्शनों में अथवा लोक में प्रत्यक्ष कहा गया है और जिस इन्द्रिय निरपेक्ष या इन्द्रिय व्यापार रहित ज्ञान को जैनदर्शन में प्रत्यक्ष कहा गया है उस ज्ञान को जैनेतर दर्शनों में अथवा लोक में परोक्ष कहा गया है।24 वस्तुतः ‘परोक्ष' शब्द से तो यही अर्थ प्रतीत होता है कि जो ज्ञान इन्द्रियादि पर की अपेक्षा से होता है वह परोक्ष प्रमाण है। इस विषय का समन्वयात्मक विश्लेषण आचार्य अकलंक ने अपने ही ढंग से किया है, जिसका विवेचन ऊपर किया जा चुका है। परोक्ष प्रमाण के पाँच भेद हैं-स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम।125 (क) स्मृति-संस्कार का उद्बोध होने पर स्मृति उत्पन्न होती है अर्थात् 110 :: जैनदर्शन में नयवाद Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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