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________________ वाले) तथा महाव्रती मुनिराज के ही होता है।15 देशावधि ज्ञान प्रतिपाती होता है अर्थात् केवलज्ञान उत्पन्न होने के पहले ही छूट जाता है परन्तु सर्वावधि और परमावधि अप्रतिपाती होते हैं। अवधि-ज्ञान सूक्ष्म रूप से एक परमाणु को विषय करता है। (2) मनपर्ययज्ञान16—जो किसी की सहायता के बिना ही अन्य पुरुष के मन में स्थित रूपी पदार्थों को एक देश स्पष्ट जानता है उसे मन:पर्ययज्ञान कहते हैं। यह ज्ञान भूतकाल में चिन्तवन किये गये अथवा जिसका भविष्यत् काल में चिन्तवन किया जाएगा अथवा वर्तमान में जिसका चिन्तवन किया जा रहा है इत्यादि अनेक भेद-स्वरूप दूसरे के मन में स्थित पदार्थ को एकदेश स्पष्ट जानता है। मन का कार्य चिन्तन करना है अत: मन के चिन्तन की जितनी भी पर्याय या अवस्थाएँ होती हैं उनको मन:पर्ययज्ञानी जान लेता है। इसीलिए इस ज्ञान को मनःपर्यय कहा गया है। मनःपर्ययज्ञान ऋजुमति और विपुलमति के भेद से दो प्रकार का है।17 ऋजुमति मन:पर्ययज्ञान मन, वचन और काय की सरलता से चिन्तित, दूसरे के मन में स्थित पदार्थ को जान लेता है तथा विपुल-मति मन:पर्ययज्ञान सरल तथा जटिल रूप से पर के मन में स्थित पदार्थ को जानता है। ऋजुमति मन:पर्ययज्ञान वर्तमान में जिसका चिन्तन किया जा रहा है ऐसे पदार्थ को जानता है और विपुलमति ज्ञान भूत, भविष्यत् तथा वर्तमान में चिन्तित पदार्थ को भी जानता है। ऋजुमति की अपेक्षा विपुलमति में आत्मा के भावों की शुद्धता अधिक होती है तथा ऋजुमति होकर छूट भी जाता है पर विपुलमति केवलज्ञान के पहले नहीं छूटता।18 अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान में विशुद्धि, क्षेत्र, स्वामी और विषय की अपेक्षा विशेषता होती है। अर्थात् अवधिज्ञान की अपेक्षा मन:पर्ययज्ञान में अधिक विशुद्धता पाई जाती है, क्षेत्र भी अधिक होता है। स्वामी की अपेक्षा मनःपर्ययज्ञान उत्तम ऋद्धिधारी मुनियों के ही होता है पर अवधिज्ञान चारों गतियों के जीवों के हो सकता है। और मनःपर्ययज्ञान का विषय भी अधिक सूक्ष्म होता है। सकलप्रत्यक्ष जो सम्पूर्ण हो अर्थात् जो ज्ञान समस्त पदार्थों और उनकी त्रिकाल-वर्ती समस्त पर्यायों को एक ही समय में एक ही साथ जानता है उसे सकल प्रत्यक्ष कहते हैं। यह सकल प्रत्यक्ष केवलज्ञान रूप है। केवलज्ञान120-जो ज्ञान सब द्रव्यों तथा उनकी सब त्रैकालिक पर्यायों को एक साथ स्पष्ट जानता है वह केवलज्ञान कहलाता है। यह केवलज्ञान सम्पूर्ण, समग्र, केवल, प्रतिपक्षरहित, सर्व-पदार्थ-गत और लोकालोक में अन्धकार रहित होता है। तत्त्वाधिगम के उपाय :: 109 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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