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पारमार्थिक प्रत्यक्ष या मुख्य प्रत्यक्ष सम्पूर्ण रूप से विशद होता है; क्योंकि यह आत्मनैर्मल्य से उत्पन्न होता है। इसमें सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष की भाँति इन्द्रिय और मन के व्यापार की आवश्यकता नहीं होती, किन्तु यह आत्मस्वरूप से उत्पन्न होता है। इसी कारण इसे मुख्य प्रत्यक्ष भी कहते हैं। सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष इन्द्रियजन्य
और मनोजन्य होने के कारण वस्तुतः परोक्ष है, किन्तु लोक में जैनेतरदर्शन उसे प्रत्यक्ष मानते हैं अतः लोक व्यवहार के अनुरोध से जैनदर्शन ने उसे भी प्रत्यक्ष माना है।
पारमार्थिक प्रत्यक्ष-भेद-पारमार्थिक प्रत्यक्ष दो प्रकार का है- 1.विकल प्रत्यक्ष और 2. सकल प्रत्यक्ष ।109
1. (अ) विकलप्रत्यक्ष-जो वस्तुतः प्रत्यक्ष हो किन्तु विकल अर्थात् अधूरा या अपूर्ण हो उसे विकल प्रत्यक्ष कहते हैं।
(ब) विकलप्रत्यक्ष-भेद-विकलप्रत्यक्ष भी दो प्रकार का है-(1) अवधि ज्ञान और 2. मनःपर्यय ज्ञान।
(1) अवधिज्ञान'10-द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा से जिसके विषय की सीमा हो उसको अवधिज्ञान कहते हैं। इसी कारण से आगम में इसको सीमाज्ञान कहा गया है। इसके दो भेद हैं- 1. भवप्रत्यय और 2. गुणप्रत्यय। यह ज्ञान इन्द्रियों की सहायता के बिना ही पुद्गलादि रूपी पदार्थों को द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की मर्यादा लिए हुए एकदेश स्पष्ट जानता है। आत्मा आदि अरूपी द्रव्यों को नहीं जानता है। भवप्रत्यय अवधिज्ञान देव और नरक भव (पर्याय) के कारण उत्पन्न होता है। अतएव यह देव और नारकियों के होता है। तथा तीर्थंकरों के भी होता है
और यह सम्पूर्ण अंगों से उत्पन्न होता है। गुणप्रत्यय अवधि-ज्ञान सम्यग्दर्शन तथा तपश्चरण आदि गुणों के कारण उत्पन्न होता है और मनुष्य तथा तिर्यंचों के होता है। इसमें अवधिज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम निमित्त होता है। यह नाभि के ऊपर शंख, पद्म, वज्र, स्वस्तिक, कलश आदि जो शुभ चिह्न होते हैं उस जगह के आत्मप्रदेशों में होता है। भव-प्रत्यय अवधि सम्पूर्ण आत्मप्रदेशों से होता है।12 गुण-प्रत्यय या क्षयोपशम निमित्तक अवधिज्ञान अनुगामी आदि के भेद से छह प्रकार का होता है। 13 अवधिज्ञान के देशावधि, परमावधि और सर्वावधि ये तीन भेद भी किये गये हैं। भवप्रत्यय अवधि नियम से देशावधि ही होता है और दर्शन-विशुद्धि
आदि गुणों के निमित्त से होने वाला गुणप्रत्यय अवधिज्ञान देशावधि, परमावधि और सर्वावधि इस तरह तीनों प्रकार का होता है।14 देशावधि ज्ञान संयत तथा असंयत दोनों प्रकार के मनुष्य और तिर्यंचों के होता है। उत्कृष्ट देशावधि ज्ञान संयत जीवों के ही होता है किन्तु परमावधि और सर्वावधि चरम शरीरी (उसी भव से मोक्ष जाने
108 :: जैनदर्शन में नयवाद
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