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________________ वह श्रुतज्ञान कहलाता है। श्रुत, आप्तवचन, उपदेश, ऐतिह्य, आम्नाय, प्रवचन और जिनवचन ये सब शब्द एक ही अर्थ के वाचक हैं। श्रुत शब्द कुशल शब्द के समान जगत्स्वार्थवृत्ति (लक्षणा विशेष) है। जैसे कुश काटने रूप क्रिया का आश्रय करके सिद्ध किया गया कुशल शब्द (उक्त अर्थ को छोड़कर) सब जगह पर्यवदात' या 'दक्ष' अर्थ में आता है, उसी प्रकार श्रुतशब्द भी श्रवण क्रिया को लेकर सिद्ध होता हुआ रूढ़िवश किसी ज्ञान विशेष में रहता है न कि केवल श्रवण से उत्पन्न ज्ञान में ही। सूत्र में आये हुए 'पूर्व' शब्द का अर्थ कारण है। इसलिए श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है अर्थात् मतिज्ञान के निमित से श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है। मतिज्ञान हुए बिना श्रुतज्ञान नहीं हो सकता। फिर भी मतिज्ञान को श्रुतज्ञान का निमित्त कारण मानना चाहिए, उपादान कारण नहीं, क्योंकि उसका असली निमित्त कारण तो श्रुतज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम ही है। __मतिज्ञान और श्रुतज्ञान में अन्तर–सर्वप्रथम पाँच इन्द्रिय और मन-इनमें से किसी एक के निमित्त से किसी भी विद्यमान वस्तु का मतिज्ञान होता है। इसके बाद इस मतिज्ञानपूर्वक उस ज्ञात हुई वस्तु के विषय में या उसके सम्बन्ध से अन्य वस्तु के विषय में जो विशेष चिन्तन और मनन प्रारम्भ होता है, उसे ही श्रुतज्ञान कहते . हैं। जैसे-चक्षु से आम के फल को देखना, यह मतिज्ञान है। इस आम्र फल विषयक चाक्षुष मतिज्ञान के होने के बाद उसके विषय में मन से उसकी आकृति, रूप, रस, गन्ध आदि पर विचार कर यह ज्ञात होता है कि यह बनारसी या लखनवी आम होना चाहिए। इस प्रकार के विकल्पों का होना श्रुतज्ञान है। आशय यह है कि किसी भी पदार्थ को देखना यह चक्षु इन्द्रिय का कार्य है और यह मतिज्ञान है तथा उसे गुण-दोषों, उसकी उपयोगिता-अनुपयोगिता आदि पर विचार करना यह मन का कार्य है, यही श्रुतज्ञान का विषय है। मन का विषय श्रुत है और श्रुत का अर्थ शब्दसंकेत आदि के माध्यम से होने वाला ज्ञान है। यहाँ मन का विषय जो श्रुत बताया है उससे मतलब भावश्रुत का है, जो श्रुतज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से द्रव्य श्रुत के अनुसार विचार रूप से तत्त्वार्थ का परिच्छेदक आत्मपरिणति विशेष ज्ञानरूप हुआ करता है। जैसे किसी ने धर्मद्रव्य का उच्चारण किया, उसको सुनते ही पहले शास्त्र में बांचे हुए अथवा किसी के उपदेश से जाने हुए गतिहेतुक धर्म द्रव्य का बोध हो जाता है, यही मन का विषय है। इसी प्रकार सम्पूर्ण तत्त्वार्थ और द्वादशांग के समस्त विषयों का विचार करना मन का कार्य है या किसी भी विषय का विचार करना ही इसका विषय है। अर्थावग्रह के अनन्तर जो मतिज्ञान होता है उसको भी उपचार से श्रुतज्ञान कहते है; क्योंकि वह मन के बिना नहीं होता अतएव 106 :: जैनदर्शन में नयवाद Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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