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प्रदेश में एक स्पर्श के ग्रहण काल में ही अन्यस्पर्श विशिष्ट उस वस्तु के प्रदेशान्तरों का ग्रहण होता है तथा कहीं पर एक रस के ग्रहण काल में ही उन प्रदेशों में नहीं रहने वाले रसान्तर से विशिष्ट वस्तु का ग्रहण होता है। दूसरे आचार्य 'निःसृत' ऐसा पढ़ते हैं। उनके द्वारा उपमा प्रत्यय एक ही संगृहीत होगा, अत: वह इष्ट नहीं है।' इसका प्रतिपक्षभूत, अभिमुख अर्थ का ग्रहण करना अथवा उपमान-उपमेय भाव के द्वारा ग्रहण करना नि:सृत अवग्रह है, जैसे कमलदलनयना अर्थात् इस स्त्री के नयन कमलपत्र के समान हैं। इस निःसृत प्रत्यय का अभाव भी नहीं है; क्योंकि, कहीं पर किसी काल में आलम्बनीभूत वस्तु के एक देश में उतने ही ज्ञान का अस्तित्व पाया जाता है
अनियमित-गुण-विशिष्ट द्रव्य का ग्रहण करना अनुक्त अवग्रह है" अथवा इन्द्रिय के प्रतिनियत गुण से विशिष्ट वस्तु के ग्रहण काल में ही उस इन्द्रिय के अप्रतिनियत गुण से विशिष्ट उस वस्तु का ग्रहण जिससे होता है वह अनुक्तप्रत्यय है। यह असिद्ध भी नहीं है; क्योंकि चक्षु से लवण, शक्कर व खांड के ग्रहण काल में ही कभी उनके रस का ज्ञान हो जाता है, दही के गन्ध के ग्रहण काल में ही उसके रस का ज्ञान हो जाता है, दीपक के रूप के ग्रहण काल में ही कभी उसके स्पर्श का ग्रहण हो जाता है तथा शब्द के ग्रहण काल में ही संस्कार-युक्त किसी पुरुष के उसके रसादि विषयक प्रत्यय की उत्पत्ति भी पाई जाती है। इससे प्रतिपक्ष रूप, नियमित गुण-विशिष्ट अर्थ का ग्रहण करना उक्त अवग्रह है। जैसे-चक्षु इन्द्रिय के द्वारा धवल पदार्थ का ग्रहण करना और घ्राणेन्द्रिय द्वारा सुगन्ध द्रव्य का ग्रहण करना इत्यादि।
जैनदर्शन में सम्यग्ज्ञान को प्रमाण कहा गया है। यह प्रमाणरूप ज्ञान पाँच प्रकार का है-1.मतिज्ञान, 2.श्रुतज्ञान, 3.अवधिज्ञान, 4. मन:पर्ययज्ञान, 5. केवलज्ञान। इनमें से आदि के दो ज्ञान अर्थात् मतिज्ञान और श्रुतज्ञान परोक्ष हैं 101 क्योंकि ये पराश्रित हैं। शेष-अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान प्रत्यक्ष हैं,102 क्योंकि ये स्वाश्रित अर्थात् आत्म-मात्र सापेक्ष हैं। इनमें मतिज्ञान के स्वरूप, भेद-प्रभेद का पर्याप्त विवेचन इन्द्रिय सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष के वर्णन में किया जा चुका है। अब क्रम प्राप्त श्रुतज्ञान विवेचनीय है।
श्रुतज्ञान
जो ज्ञान मतिज्ञान से उत्पन्न होता है वह श्रुतज्ञान कहलाता है, क्योंकि 'सुदंमई पुव्वं' (श्रुतं मतिपूर्वम्) 14 श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है, ऐसा वचन है। अर्थात् मतिज्ञान से जाने हुए पदार्थ का अवलम्बन लेकर जो अन्य अर्थ का ज्ञान होता है
तत्त्वाधिगम के उपाय :: 105
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