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(घ) उक्त और निःसृत में भेद-दूसरे के कहने से जो ज्ञान होता है वह उक्त है और स्वत: ही जान लेना नि:सृत है।
यदि यह कहा जाय कि श्रोत्र, घ्राण, स्पर्शन, रसना-ये चारों इन्द्रियाँ प्राप्यकारी हैं अर्थात् प्राप्त पदार्थ को जानती हैं, अतः इनसे अनिःसृत और अनुक्त शब्दादि का ज्ञान कैसे होगा? तो इसका समाधान है-जैसे चींटी वगैरह को घ्राण और रसना इन्द्रिय से दूरवर्ती गुड़ आदि की गन्ध और रस का ज्ञान हो जाता है, वैसे ही अनिःसृत और अनुक्त शब्दादि का भी ज्ञान जानना चाहिए। ___इनमें से 'उक्त' का सम्बन्ध केवल श्रोत्रेन्द्रिय के साथ तो ठीक बैठ जाता है, किन्तु अन्य इन्द्रियों के साथ नहीं बैठता है; क्योंकि जो बात शब्द के द्वारा कही जाय वही 'उक्त' है और शब्द श्रोत्रेन्द्रिय का विषय है। आचार्य अकलंक ने इसे इस प्रकार घटित किया है-जैसे कोई आदमी दो रंगों को मिलाकर कोई तीसरा रंग बनाना दिखला रहा है तो उसके कहने से पहिले ही उसके अभिप्राय को जान लेना कि आप इन दोनों रंगों को मिलाकर अमुक रंग बनाएँगे, यह अनुक्तरूप का ज्ञान है और कहने पर जानना उक्त रूप का ज्ञान है। चूँकि रूप चक्षु का विषय है अतः यह चक्षु विषयक उक्त और अनुक्त ज्ञान है। इसी तरह स्पर्श, रस, गन्ध को लेकर . स्पर्शन, रसना और घ्राण इन्द्रिय के साथ उक्त और अनुक्त को घटित कर लेना चाहिए।
(ङ) अनिःसृत और अनुक्त का भेद-अनभिमुख (जो सामने न हो) अर्थ का ग्रहण करना अथवा उपमान-उपमेय भाव के बिना ग्रहण करना अनिःसृत अवग्रह है। अथवा वस्तु के एकदेश का अवलम्बन करके पूर्ण रूप से वस्तु को ग्रहण करने वाला तथा वस्तु के एक देश अथवा समस्त वस्तु का अवलम्बन करके वहाँ अविद्यमान अन्य वस्तु को विषय करने वाला भी अनिःसृत प्रत्यय है। यह प्रत्यय असिद्ध नहीं है, क्योंकि घट के अर्वाग्भाग का अवलम्बन करके कहीं घट प्रत्यय की उत्पत्ति देखी जाती है, कहीं पर अर्वाग्भाग के एक देश का अवलम्बन करके उक्त प्रत्यय की उत्पत्ति पाई जाती है, कहीं पर 'गाय के समान गवय होता है' इस प्रकार अथवा अन्य प्रकार से एक वस्तु का अवलम्बन करके वहाँ समीप में न रहने वाली अन्य वस्तु को विषय करने वाले प्रत्यय की उत्पत्ति पाई जाती है, कहीं पर अर्वाग्भाग के ग्रहण-काल में ही परभाग का ग्रहण पाया जाता है और यह असिद्ध भी नहीं है' क्योंकि, अन्यथा वस्तु-विषयक प्रत्यय की उत्पत्ति बन नहीं सकती तथा अर्वाग्भाग मात्र वस्तु हो नहीं सकती; क्योंकि उतने मात्र से अर्थ-क्रियाकारित्व नहीं पाया जाता। कहीं पर एक वर्ण के श्रवण काल में ही आगे उच्चारण किये जाने वाले वर्णों को विषय करने वाले प्रत्यय की उत्पत्ति पाई जाती है, कहीं पर अपने अभ्यस्त
104 :: जैनदर्शन में नयवाद
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