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यहाँ यह जानना भी आवश्यक है कि यह कोई नियम नहीं कि इनमें से पहला ज्ञान होने पर आगे के सभी ज्ञान होते ही हैं। कभी केवल अवग्रह ही होकर रह जाता है, कभी अवग्रह, और ईहा ही होते हैं, कभी-कभी अवग्रह, ईहा और अवाय ज्ञान ही होते हैं और कभी धारणा तक होते हैं। ये सभी ज्ञान एक चैतन्य के ही विशेष हैं, किन्तु ये सब क्रम से होते हैं तथा इनका विषय भी एक दूसरे से . ... अपूर्व है। अतः ये सब आपस में भिन्न-भिन्न माने जाते हैं। अवग्रह आदि का कालमान
श्वेताम्बर आगमिक मान्यता के अनुसार(1) व्यंजनावग्रह का काल असंख्यात समय है। (2) अर्थावग्रह का काल एक समय है।
(3) ईहा का काल अन्तर्मुहूर्त (48 मिनट का मुहूर्त और उससे कम अन्तर्मुहूर्त)।
(4) अवाय का काल भी अन्तर्मुहूर्त। (5) धारणा का काल संख्यात और असंख्यात समय है।
ये अवग्रह आदि ज्ञान बहु, बहुविध, क्षिप्र, अनिःसृत, अनुक्त, ध्रुव और इनसे उलटे एक या अल्प, एकविध या अल्पविध, अक्षिप्र, निःसृत, उक्त तथा अध्रुवइन बारह प्रकार के पदार्थों को ग्रहण करते हैं अर्थात् इन बारह प्रकार के पदार्थों का अवग्रह ईहादि रूप ज्ञान होता है। बह आदि के लक्षण : 1. बहु-एक साथ एक पदार्थ का बहुत अवग्रहादि ज्ञान होना। जैसे-गेहूँ
की राशि देखने से बहुत से गेहुँओं का ज्ञान होना। 2. बहुविध-बहुत प्रकार के पदार्थों का अवग्रहादि ज्ञान होना। जैसे-गेहूँ,
चना, चावल आदि कई पदार्थों का ज्ञान होना। 3. क्षिप्र-शीघ्रता से पदार्थ का ज्ञान होना अथवा शीघ्र पदार्थ को क्षिप्र
कहते हैं जैसे-तेजी से बहता हुआ जलप्रवाह। 4. अनिःसृत-अप्रकट पदार्थ का ज्ञान। जैसे-जल में डूबा हुआ हाथी
आदि अथवा एक प्रदेश के ज्ञान से सर्व का ज्ञान होना। जैसे बाहर निकली हुई हाथी की सूंड को देखकर जल में डूबे हुए पूरे हाथी का
ज्ञान होना।
5. अनुक्त-वचन से कहे बिना अभिप्राय से जान लेना। जैसे–मुख की 100 :: जैनदर्शन में नयवाद
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