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(ii) सकता, इस प्रकार के सिद्धांत का श्री जिन ने प्रतिपादन किया है, जो अखंड सत्य है ।"
" किसी (विरले) जीव से ही उस गहन दशा का विचार हो सकने योग्य है, क्यों कि इस जीव ने अनादि से अत्यंत अज्ञान दशा से प्रवृत्ति की है, वह प्रवृत्ति एकदम असत्य, असार समझी जाकर, उसकी निवृत्ति (त्याग) सूझे इस प्रकार बनना अत्यन्त कठिन है । इसलिए जिन ने ज्ञानीपुरुष का आश्रय करने रूप भक्तिमार्ग का निरुपण किया है कि जिस मार्ग की आराधना करने से सुलभ रूप से ज्ञानदशा उत्पन्न होती है ।
"
"ज्ञानीपुरुष के चरणों के प्रति मन को स्थापित किए बिना वह भक्ति मार्ग सिद्ध नहीं होता, जिससे पुन: पुनः ज्ञानी की आज्ञा की आराधना करने का जिनागम में स्थान स्थान पर कथन किया है । ज्ञानीपुरुष के चरण में मन का स्थापन होना, प्रथम कठिन पड़ता है, परन्तु वचन की अपूर्वता से उस वचन का विचार करने से एवं ज्ञानी के प्रति अपूर्व दृष्टि से देखने से मन का स्थापन होना सुलभ बनता है ।
"
सत्पुरुष की आश्रयभक्ति
" सत्पुरुष के वचन के यथार्थ ग्रहण के बिना विचार प्राय: उद्भव नहीं होता और सत्पुरुष के वचन का
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