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यथार्थ ग्रहण, सत्पुरुष की प्रतीति से कल्याण होने में सर्वोत्कृष्ट निमित्त होने से उनकी "अनन्य आश्रयभक्ति" परिणमित होने से होता है । बहुधा एक दूसरे कारणों को अन्योन्याश्रय जैसा है । कहीं किसी की मुख्यता है, कहीं किसी की मुख्यता है । फिर भी यों तो अनुभव में आता है कि सच्चा मुमुक्षु हो उसे सत्पुरुष की " आश्रयभक्ति" अहंभावादि काटने के लिए और अल्पकाल में विचारदशा परिणमित करने के लिए उत्कृष्ट कारणरूप बनती है ।
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सद्गुरु भक्ति का अंतराशय
" हे परमात्मा ! हम तो यही मानते हैं कि इस काल में भी जीव का मोक्ष हो । फिर भी, जैन ग्रन्थों में क्वचित् प्रतिपादन हुआ है तदनुसार इस काल में मोक्ष न हो तो इस क्षेत्र में वह प्रतिपादन तू रख और हमें मोक्ष देने के बजाय ऐसा सुयोग प्रदान कर कि हम सत्पुरुष के ही चरणों का ध्यान करें और और उसके समीप ही रहें ।
"हे पुरुष पुराण ! हम नहीं समझते कि तुझ में और सत्पुरुष में कोई भेद हो; हमें तो तुझसे भी सत्पुरुष ही विशेष प्रतीत होते हैं क्यों कि तू भी उसके अधीन
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