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________________ एक बार एक युवक आया....मैंने उसे अपने जाल में फंसाया। सोने की चिड़िया थी। मेरे आका ने कह रखा था कि इसे पूरा निचोड़ देना। उसके पास धनराशि समाप्त होते ही वह जाने लगा। जाते-जाते उसने अपना परिचय दिया ! ओह, मंत्रीश्वर ! आपको क्या बताऊँ....मेरा कलेजा चीरा जा रहा है....वह युवक और कोई नहीं...मेरा ही पुत्र वेद-विचक्षण था। वह मुझे और उसके पिता को खोजने के लिये निकला था। मैंने पवित्र संबंध को कलंकित कर दिया, ओह....! ___ उस वक्त तो मैंने मेरे पुत्र को इस बात की गंध भी न आने दी...और उसे विदा कर दिया। अब मेरा रोम-रोम रो रहा था...मुझे मेरे पाप का प्रायश्चित्त करना था...आग में जलकर भस्म होना था....मगर मेरी बदकिस्मत को यह नामंजूर था...उसे मेरी और हलाली करनी थी....वह हाथ धोकर मेरे पीछे पड़ी हुई थी...। नदी के किनारे चित्ता तैयार करवा कर ज्योंहि अंदर कूदी कि यकायक शून्याकाश में उमड़-घुमड़कर काली बदलियाँ मँडराने लगी...और देखते ही देखते मूसलाधार बारिश चालू हो गई...और नदी में जबरदस्त बाढ़ आ गई। चिता में जलने की बजाय मैं बाढ़ के पानी में बहने लगी। मैं आग में झुलसी जरूर थी, मगर होंशहवाश में थी, अत: तैरने की व्यर्थ कोशिश करने लगी। जब मैं डूबने लगी तो दूर-सुदूर खड़े एक अहीर ने मुझे देखा और वह पानी में कूद पड़ा और मुझे बचा कर मुँह से पानी निकाल दिया। वह मेरे रूप लावण्य पर मोहित हो गया और मुझे अपनी औरत बना डाला। सच ही कहा है कि 'रक्षण बिना का स्त्री का रूप - लावण्य स्त्री के लिए वरदान नहीं बल्कि अभिशाप है।' कहाँ ब्राह्मणी... राजरानी......वेश्या...और आज मैं अहीरन ! वाह रे, मेरे कर्म ! रे कर्म तेरी गति न्यारी...!! /78 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004216
Book TitleRe Karm Teri Gati Nyari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunratnasuri
PublisherJingun Aradhak Trust
Publication Year
Total Pages170
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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