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________________ मगर मेरा मन राजशाही में नहीं लगता था....मेरे प्राण तो निर्धनता में आकंठ डूबे मेरे पतिदेव और मेरे छोटे-से पुत्र वेदविचक्षण के आस-पास ही घूमा करते थे...। ___ मैंने कई तरकीबें सोची भागने की....सफल न हो सकी....राजाजी को कहकर एक दानशाला खुलवाई...जहाँ मुझे खोजते हुए मेरे प्राणप्रिय पतिदेव फटेहाल आये....मैंने उन्हें भीतर बुलवाया और उनके चरणों में गिर पड़ी.....उनकी आँखें चुंधियाँ गई। उन्हें अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हुआ....। मैंने उन्हें संकेत देकर शीघ्र रवाना कर दिया कि काली चौदस को देवी के मंदिर में मुझे लेने के लिये आ जाना। मैं वहा आ जाऊँगी।' योजनानुसार अब मुझे नाटक करना था.....मैंने भयंकर पेट पीड़ा का बहाना बनाया और राजाजी को कहा कि मैंने देवी की मिन्नत मानी है, उसे पूरी करनी है।' इस पर राजाजी तैयार हो गये। ठीक, काली चौदस की मध्यरात्रि में राजा के साथ मैं देवी मंदिर पर पहुँची। राजा ने तलवार खोल कर मंदिर के बाहर रख दी और जैसे ही सिर झुकाकर द्वार में प्रवेश किया कि मैंने उसी तलवार से उसका काम तमाम कर दिया। अन्दर जाकर देखा तो वेदसार सर्पदंश से मर चुका था। मेरे तो होशहवाश उड़ गये...एकदम किंकर्त्तव्यमूढ बन गई.....मेरी स्थिति 'धोबी का कुत्ता, न घर न घाट का' 'अतो भ्रष्टः ततो भ्रष्ट' हो गई। मैं भय के मारे घोड़े पर सवार होकर जंगल की ओर भागते हुए एक नगर के बाहर मंदिर में पहुँची। वहाँ भजन-कीर्तन चल रहा था। एक स्त्री ने मुझे फंसा दिया और अपने घर ले जाकर वेश्या बना दिया। ओह ! कर्म ने मुझे कैसे-कैसे नाच नचाये ? कहाँ एक दिन की ब्राह्मणी और फिर राजरानी और कहाँ वेश्यावृत्ति! रे कर्म तेरी गति न्यारी...!! /77 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004216
Book TitleRe Karm Teri Gati Nyari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunratnasuri
PublisherJingun Aradhak Trust
Publication Year
Total Pages170
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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